मंदिर प्रांगण में जेठ के पहले बड़े
मंगल का भंडारा हो रहा था,
पंक्ति बद्ध होकर स्त्री, पुरुष,
बच्चे, बुजुर्ग आते जा रहे थे।
पूड़ी, सब्ज़ी, हलुआ पत्ते के दोनो
में श्रद्धा पूर्वक लेते जा रहे थे,
कई लोग दो दो बार भी आते
और प्रसाद लेकर जा रहे थे।
भंडारा समिति का कहना था कि
किसी को भी मना नहीं करना,
कितनी बार कोई लाइन में आए,
उसको प्रसाद ज़रूर देते जाना।
बहुत ही व्यवस्थित रूप से भंडारा
शान्ति पूर्वक चल रहा था,
अलग अलग श्रद्धालु स्त्रियों, पुरुषों
सब की लाइन आगे बढ़ रही थी।
एक सात आठ साल का गरीब बच्चा
अपनी छोटी बहन के साथ में आया,
और लाइन में बारी आने पर दोनो के
लिए केवल एक ही प्रसाद लिया।
बाँटने वालों ने छोटी बच्ची के लिए
अलग से और प्रसाद देना चाहा,
लड़के ने इस पर कहा कि अंकल
हम दोनो एक ही में खा लेंगे।
इस बात पर आश्चर्य चकित होकर
प्रसाद बाँटने वाले सज्जन बोले,
सभी तो अलग अलग ही प्रसाद ले
रहें हैं और कई कई बार ले रहे हैं।
तुम भी दोनो अपने अपने लिये
अलग अलग क्यों नही लेते ?
छोटे से लड़के ने बड़ा ही भावुक
उत्तर देते हुए यह कहा अंकल।
कि हम दोनो के लिए इसी एक
प्रसाद में ही पूरा हो जायेगा,
व्यर्थ में बहन के लिए दूसरा
प्रसाद अलग से क्यों लेना।
बहुत लोग लाइन में लगे हुये हैं यदि
ख़त्म हो जाएगा सारा प्रसाद तो
बाद में आने वाले लाइन में लगे
हुए लोगों को कैसे मिल पायगा ?
कितना मौलिक व भावना पूर्ण
सोचना था एक बालक का !
काश संसार के सब लोग यदि ऐसे
ही सोचते ऐसे ही उदाहरण दे पाते।
तो समाज से देश से, ‘आदित्य’
यह स्वार्थीपन समाप्त हो जाता,
ईश्वर की रची इस दुनिया में सच्चा
समाजवाद और राम राज्य आता।
कर्नल आदि शंकर मिश्र ‘आदित्य’
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