निष्काम कर्म साधना के प्रतीक हैं रज्जू भैया: रामकुमार सिंह

प्रयागराज (राष्ट्र की परम्परा)। भारत-तिब्बत समन्वय संघ के आद्य प्रणेता प्रो० रज्जू भईया के जन्म शताब्दी वर्ष में आयोजित हो कार्यक्रमों के क्रम मे पूर्वी उत्तर प्रदेश के मुख्य संयोजक रामकुमार सिंह ने यहां निर्भय नारायण पाण्डेय के आवास पर उपस्थित जनों को संबोधित करते हुए कहा कि प्रो०रज्जू भैया का सम्पूर्ण जीवन इस बात का साक्षी है कि उन्हें पद की आकांक्षा अथवा उसका मोह कभी रहा ही नहीं। विश्वविद्यालय में प्राध्यापक रह कर भी उन्होंने अपने लिये धनार्जन नहीं किया। अपने वेतन की एक-एक पाई को संघ कार्य पर व्यय कर देते थे। सम्पन्न परिवार में जन्म लेने, पब्लिक स्कूलों में शिक्षा पाने, संगीत और क्रिकेट जैसे खेलों में रुचि होने के बाद भी वे अपने ऊपर कम से कम खर्च करते थे। मितव्ययता का वे अपूर्व उदाहरण थे। वर्ष के अन्त में अपने वेतन में से जो कुछ बचता उसे गुरु-दक्षिणा के रूप में समाज को अर्पित कर देते थे।
श्री सिंह ने कहा कि एक बार राष्ट्रधर्म प्रकाशन आर्थिक संकट में फँस गया तो उन्होंने अपने पिताजी से आग्रह करके अपने हिस्से की धनराशि देकर राष्ट्रधर्म प्रकाशन को संकट से उबारा। यह थी उनकी सर्वत्यागी संन्यस्त वृत्ति की अभिव्यक्ति।
नि:स्वार्थ स्नेह और निष्काम कर्म साधना के कारण रज्जू भैया सबके प्रिय थे, संघ के भीतर भी और बाहर भी। पुरुषोत्तम दास टण्डन और लाल बहादुर शास्त्री जैसे राजनेताओं के साथ-साथ प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जैसे सन्तों का विश्वास और स्नेह भी उन्होंने अर्जित किया था।
बहुत संवेदनशील अन्त:करण के साथ-साथ रज्जू भैया घोर यथार्थवादी भी थे। वे किसी से भी कोई भी बात निस्संकोच कह देते थे और उनकी बात को टालना कठिन हो जाता था। आपातकाल के बाद जनता पार्टी की सरकार में जब नानाजी देशमुख को उद्योग मन्त्री का पद देना निश्चित हो गया तो रज्जू भैया ने उनसे कहा कि नानाजी अगर आप, अटलजी और आडवाणीजी – तीनों सरकार में चले जायेंगे तो बाहर रहकर संगठन को कौन सँभालेगा? नानाजी ने उनकी इच्छा का आदर करते हुए तुरन्त मन्त्रीपद ठुकरा दिया और जनता पार्टी का महासचिव बनना स्वीकार किया। चाहे अटलजी हों, या आडवाणीजी, अशोकजी सिंहल हों, या दत्तोपन्त ठेंगडीजी – हरेक शीर्ष नेता रज्जू भैया की बात का आदर करता था; क्योंकि उसके पीछे स्वार्थ, कुटिलता या गुटबन्दी की भावना नहीं होती थी।
बीटीएसएस महिला विभाग की प्रदेश मंत्री डॉ०सोनी सिंह ने कहा कि रज्जू भैया की संघ यात्रा असामान्य है। वे बाल्यकाल में नहीं युवावस्था में सजग व पूर्ण विकसित मेधा शक्ति लेकर प्रयाग आये। सन् १९४२ में एम.एससी. प्रथम वर्ष में संघ की ओर आकर्षित हुए और केवल एक-डेढ़ वर्ष के सम्पर्क में एम.एससी. पास करते ही वे प्रयाग विश्वविद्यालय में व्याख्याता पद पाने के साथ-साथ प्रयाग के नगर कायर्वाह का दायित्व सँभालने की स्थिति में पहुँच गये। १९४६ में प्रयाग विभाग के कार्यवाह, १९४८ में जेल-यात्रा, १९४९ में दो तीन विभागों को मिलाकर संभाग कार्यवाह, १९५२ में प्रान्त कार्यवाह और १९५४ में भाऊराव देवरस के प्रान्त छोड़ने के बाद उनकी जगह पूरे प्रान्त का दायित्व सँभालने लगे। १९६१ में भाऊराव के वापस लौटने पर प्रान्त-प्रचारक का दायित्व उन्हें वापस देकर सह प्रान्त-प्रचारक के रूप में पुन:उनके सहयोगी बने। भाऊराव के कार्यक्षेत्र का विस्तार हुआ तो पुन: १९६२ से १९६५ तक उत्तर प्रदेश के प्रान्त प्रचारक, १९६६ से १९७४ तक सह क्षेत्र-प्रचारक व क्षेत्र-प्रचारक का दायित्व सँभाला। १९७५ से १९७७ तक आपातकाल में भूमिगत रहकर लोकतन्त्र की वापसी का आन्दोलन खड़ा किया। १९७७ में सह-सरकार्यवाह बने तो १९७८ मार्च में माधवराव मुले का सर-कार्यवाह का दायित्व भी उन्हें ही दिया गया। १९७८ से १९८७ तक इस दायित्व का निर्वाह करके १९८७ में हो० वे० शेषाद्रि को यह दायित्व देकर सह-सरकार्यवाह के रूप में उनके सहयोगी बने। १९९४ में तत्कालीन सरसंघचालक बाला साहब देवरस ने अपने गिरते स्वास्थ्य के कारण जब अपना उत्तराधिकारी खोजना शुरू किया तो सबकी निगाहें रज्जू भैया पर ठहर गयीं और ११ मार्च १९९४ को बाला साहेब ने सरसंघचालक का शीर्षस्थ दायित्व स्वयमेव उन्हें सौंप दिया।
डॉ० सिंह ने कहा कि संघ के इतिहास में यह एक असामान्य घटना थी प्रचार माध्यमों और संघ के आलोचकों की आंखें इस दृश्य को देखकर फटी की फटी रह गई, उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा था की जिस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर वे अब तक महाराष्ट्रीयन ब्राह्मणों के एकाधिकार की छवि थोपते आए हैं उसके शिखर पर उत्तर भारत का कोई गैर महाराष्ट्रीयन और अब्राह्मण पहुंच सकता है, वह भी सर्वसम्मति से। रज्जू भैया का शरीर उस समय रोगग्रस्त और शिथिल था किन्तु उन्होंने प्राण-पण से सौंपे गये दायित्व को निभाने का जी-तोड़ प्रयास किया। परन्तु अहर्निश कार्य और समाज-चिन्तन से बुरी तरह टूट चुके अपने शरीर से भला और कब तक काम लिया जा सकता था। अतएव सन् १९९९ में ही उन्होंने उस दायित्व का भार किसी कम उम्र के व्यक्ति को सौंपने का मन बना लिया। और अन्त में अपने सहयोगियों के आग्रहपूर्ण अनुरोध का आदर करते हुए एक वर्ष की प्रतीक्षा के बाद, मार्च २००० में सुदर्शन जी को यह दायित्व सौपकर स्वैच्छिक पद-संन्यास का संघ के समक्ष एक आदर्श प्रस्तुत किया।
कार्यक्रम में प्रमुख रूप से उमाशंकर पाण्डेय अध्यक्ष संत कबीर नगर, निर्भय नारायण पाण्डेय, सेवानिवृत चीफ मैनेजर बैनक आफ बड़ौदा,आभा सिंह, भाजपा नगर उपाध्यक्ष महिला मोर्चा, अंजू पाण्डेय सेवानिवृत चीफ ऑफिस सुप्रिटेंडेंट उत्तर मध्य रेलवे, प्रयागराज, नीरज पाण्डेय पीएचडी स्कॉलर, गुरुकुल कांगड़ी यूनिवर्सिटी, हरिद्वार, नूपुर पाण्डेय, शिवकुमार उपाध्याय, शिवकुमार त्रिपाठी सेवानिवृत्त जूनियर कमीशन ऑफिसर, कमलेश श्रीवास्तव, दिनेश चन्द्र मिश्रा सेवानिवृत्त वरिष्ठ प्रबंधक बैंक आफ बडौदा उपास्थित रहे तथा कार्यकर्म की शोभा बढ़ाए । अंत में उपस्थित लोगों को कैलाश मानसरोवर व तिब्बत मुक्ति का शपथ दिलाकर कार्यक्रम सम्पन किया गया।

rkpNavneet Mishra

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