चुनाव का दौर, जाति धर्म के नारे,
जनता को भी क्या लगते हैं प्यारे,
वोट माँगते हैं दोनो हाथ जोड़कर,
मालामाल करेंगे चुनाव जीतकर।
फ़क़ीर बनकर जो वोट माँगता है,
माननीय बनता है, जीत जाने पर,
हिंदू मुस्लिम होते सब दिखते हैं,
पर इंसान इंसान नहीं रह पाते हैं।
चुनाव हो जाने पर फिर वही
इंसान रोटी के लिये तरसते हैं,
हर चुनाव में ये फ़क़ीर फिर से
जनता से वोट माँगते फिरते हैं।
कैसा लोकतंत्र हो गया भारत का,
न सोचा था संविधान निर्माताओं ने,
अब तो वोट माँगना भी बंद हो गया,
उम्मीदवार का दर्शन दुर्लभ हो गया।
चुनाव के बाद वादे वादे रह जाते हैं,
बस जुमले जनता पर धौंस जमाते हैं,
नेता माननीय बन कर मंत्री और
मुख्यमंत्री तक भी बन जाते हैं।
पाँच साल बस पाँच साल तक
फिर जीवन भर पेंशन लेते हैं,
सांसद और विधायक की भी,
दो दो तीन तीन पेंशन लेते हैं।
गठबंधन, ठगबंधन दौर चले हैं,
पैसा भोजन सब मुफ़्त दे रहे हैं,
आदित्य देश बँटा है जातिधर्म में,
नेता नगरी हम सबको बाँट रहे हैं।
कर्नल आदि शंकर मिश्र ‘आदित्य’
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