Sunday, December 21, 2025
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संविधान से व्यवस्था, परमात्मा से नैतिकता

कैलाश सिंह

महराजगंज (राष्ट्र की परम्परा)।लोकतांत्रिक व्यवस्था में संविधान वह मजबूत आधार है, जिस पर शासन, अधिकार और कर्तव्यों की पूरी संरचना टिकी होती है। संविधान मानव द्वारा बनाए गए नियमों और कानूनों का सुव्यवस्थित संग्रह है, जिसका उद्देश्य समाज में व्यवस्था, समानता और न्याय स्थापित करना है। इसके अनुच्छेद यह तय करते हैं कि देश कैसे चलेगा, नागरिकों के अधिकार क्या होंगे और सत्ता की सीमाएं कहां तक होंगी। संविधान राज्य और नागरिकों के बीच संतुलन बनाए रखने का कार्य करता है। यह बताता है कि सरकार को क्या करना चाहिए और क्या नहीं, साथ ही नागरिकों को कौन-कौन से अधिकार और कर्तव्य प्राप्त हैं। कानून का डर समाज में अनुशासन बनाए रखने में सहायक होता है, जिससे अराजकता पर नियंत्रण रहता है। वहीं दूसरी ओर परमात्मा किसी लिखित ग्रंथ या अनुच्छेद में सीमित नहीं हैं। वे मानव जीवन में नैतिकता और आत्मबोध का शाश्वत स्रोत माने जाते हैं। सत्य, अहिंसा, दया, परोपकार और सह-अस्तित्व जैसे मूल्य किसी कानून के भय से नहीं, बल्कि अंतरात्मा की प्रेरणा से जन्म लेते हैं। नैतिकता मनुष्य को गलत कार्य करने से पहले ही रोकती है।संविधान यह सिखाता है कि क्या करना अनिवार्य है और क्या निषिद्ध, जबकि परमात्मा यह बोध कराते हैं कि क्या सही है और क्या गलत। कानून अक्सर अपराध होने के बाद दंड देता है, लेकिन नैतिकता अपराध की संभावना को पहले ही समाप्त कर देती है। यही दोनों के बीच मूल अंतर और आपसी पूरकता है। एक आदर्श समाज वही होता है, जहां संविधान का पालन केवल दंड के डर से नहीं, बल्कि नैतिक चेतना से किया जाए। जब कानून और नैतिकता साथ-साथ चलते हैं, तभी लोकतंत्र मजबूत बनता है। संविधान समाज को अनुशासित करता है और परमात्मा उसे संवेदनशील बनाते हैं। दोनों का संतुलन ही मानवता की सच्ची पहचान और मजबूत लोकतंत्र की आधारशिला है।

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