April 24, 2025

राष्ट्र की परम्परा

हिन्दी दैनिक-मुद्द्दे जनहित के

बिखरी केवल प्यास॥

सूख गई हर बावड़ी, समतल हैं तालाब।
कैसे अब पानी बचे, देगा कौन जवाब॥

पेड़ कटे, पर्वत ढहे, सूनी हुई बहार।
बादल भी मुँह मोड़कर, चले गए लाचार॥

नदियाँ सारी मर गई, सूख गई हर आस।
पानी बिन जीवन नहीं, कहता है इतिहास॥

नदियाँ सूनी हो गईं, पोखर हुए उदास।
जल बिन धरती तड़पती, कौन सुनेे अरदास॥

बिन पानी के रोज अब, बंजर बनते खेत।
धरती मां की गोद में, बिखरी केवल रेत॥

बोतल में अब बिक रहा, नदियों का उपहार।
कल तक जो घर-घर बहा, आज बना व्यापार॥

नदियाँ पूछें राह अब, सागर भी लाचार।
बिन पानी सिसक रही, धरती की झंकार॥

सूख गईं हैं झील सब, नदियाँ हुई उदास।
धरती माँ की गोद में, बिखरी केवल प्यास॥

रोती नदियाँ कह रही, कर लो कोई याद।
बिन पानी बेजान सी, धरा करे फरियाद॥

-डॉ. सत्यवान सौरभ
भिवानी