Monday, December 22, 2025
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ना जोगीरा, ना चौताल गुम हो रही परम्पराएं, आवश्यकता है इनके संरक्षण की

संत कबीर नगर(राष्ट्र की परम्परा) होली खेलें रघुबीरा अवध में…, आज बिरज में होली रे रसिया… जैसे फागुआ गीत (फाग गीत) अब बीते दिनों की बात हो गई है। अब गांवों में ढोल मजीरे तक की आवाज नहीं सुनाई दे रही है। गंवई परंपराओं पर आधुनिकता का चटक रंग चढ़ गया है। होली के फाग गीतों का स्थान भोजपुरी के अश्लील गीतों ने ले लिया है। एक्का-दुक्का गांवों में जैसे-तैसे इस परम्परा को बनाए रखने की औपचारिकता निभाई जा रही है। आपसी विद्वेष में गांवों का विकास तो बाधित हुआ ही है। अब परम्पराएं भी विलुप्ति के कगार पर पहुंच गई हैंl
भारत त्योहार, व्रत तथा परंपराओं का जीवंत सभ्यता और संस्कृति का दर्पण हैं। देश की अनेकता में एकता प्रदर्शित होने के पीछे हमारी समृद्ध परंपराओं और पर्वों का बहुत योगदान रहा है। बुजुर्गों की मानें तो गांवों में इन परम्पराओं को लोग भली-भांति निभाते थे। बसंत पंचमी से ही गांवों में फागुआ गीतों की बयार बहने लगती थी। फागुआ गीतों में राग, मल्हार, फगुवा, झूमर, चौताल, नारदी, तितला, चैता और बारहमासा आदि के माध्यम से भारतीय लोक संस्कृति की छाप बहुतायत देखने को मिलती थी। गांवों में लोग एक साथ बैठकर फाग गीतों के गाने से लोगों के बीच आपसी प्रेम और सौहार्द बढ़ता था। गांवों के झगड़े का निपटारा भी होली में आपसी बातचीत से ही हो जाता था। लेकिन आधुनिकता के चकाचौंध में लोक कलाओं के विलुप्त होने से समाज में आपसी वैमनस्यता बढ़ गई है।
आज आवश्यकता है पारम्परिक लोककलाओं के संरक्षण की।

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