डॉ. सतीश पाण्डेय
महराजगंज (राष्ट्र की परम्परा)। आधुनिक जीवन की तेज रफ्तार, निरंतर प्रतिस्पर्धा और बाहरी शोर ने आज के मनुष्य को भीतर से थका दिया है। सुविधाएं बढ़ी हैं, आकांक्षाएं भी बढ़ी हैं, लेकिन मानसिक शांति और आत्मसंतुलन कहीं पीछे छूटता जा रहा है। ऐसे समय में अध्यात्म कोई कठिन या दूरस्थ साधना नहीं, बल्कि रोजमर्रा के जीवन से जुड़ा एक सहज और सरल मार्ग बनकर उभरता है।
भारतीय दर्शन में सांस को केवल श्वास-प्रश्वास नहीं, बल्कि ‘प्राण’ कहा गया है—यानी जीवन की मूल ऊर्जा। जब मन अशांत होता है, तो सांसें भी अनियमित हो जाती हैं और जब व्यक्ति सांसों पर ध्यान केंद्रित करता है, तो मन स्वतः शांत होने लगता है। यही कारण है कि योग, ध्यान और प्राणायाम में सांस को केंद्र में रखा गया है। आत्मशांति का सत्य कहीं बाहर नहीं, बल्कि हमारी अपनी सांसों में ही निहित है।
आज समाज में मंदिरों, धार्मिक आयोजनों और कर्मकांडों की संख्या बढ़ी है, लेकिन मन का मंदिर सूना होता जा रहा है। पूजा-पाठ कई बार बाहरी आडंबर तक सीमित रह गया है, जबकि आध्यात्म का वास्तविक उद्देश्य आत्मशुद्धि, चेतना का विकास और मानवीय मूल्यों का विस्तार है। जब सांसों के साथ जागरूकता जुड़ती है, तो अहंकार कमजोर होता है और करुणा, संयम व विवेक जैसे गुण विकसित होते हैं।
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समाज में बढ़ता तनाव, अवसाद और हिंसा इस बात के संकेत हैं कि हम भीतर की साधना से दूर होते जा रहे हैं। कानून और व्यवस्था आवश्यक हैं, लेकिन मानसिक शांति का स्थायी समाधान अध्यात्म और आत्मचिंतन से ही निकलता है। जब व्यक्ति स्वयं से जुड़ता है, तो समाज में सकारात्मक बदलाव स्वतः आने लगते हैं।
सांसों में सिमटी साधना हमें यह सिखाती है कि साधना कोई पलायन नहीं, बल्कि जिम्मेदारी के साथ जागरूक होकर जीने की कला है। आध्यात्म का सत्य किसी ग्रंथ तक सीमित नहीं, वह हर क्षण हमारी सांसों के साथ चलता है। आवश्यकता है बस एक पल रुकने की, गहरी सांस लेने की और स्वयं से मिलने की।
