March 12, 2025

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अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस और सआदत हसन मंटो

  • डॉ. महबूब हसन

आज 8 मार्च अर्थात अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस है। आज दुनिया भर में महिलाओं के सुख-दुःख और उन के जीवन के मुख्तलिफ पहलुओं पर विचार विमर्श होगा। जगह जगह सेमिनार और कांफ्रेंस आयोजित किये जाएँगे। ऐसे महत्वपूर्ण अवसर पर मंटो को याद करना हमारा दायित्व है। उर्दू कथाकार सआदत हसन मंटो की कहानियां और रचनाएँ अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी खास पहचान रखती हैं। इस खास मौके पर मंटो को याद किया जाना निश्चित तौर पर उस की प्रासंगिकता और लोकप्रियता को दर्शाता है। दर असल मंटो का शुमार एक यथार्थवादी और हक़ीक़त पसंद फ़नकार के तौर पर होता है। मंटो ने उर्दू कथा साहित्य की परंपरा में कहानी लेखन का एक नया मुहावरा और एक नई शैली का आग़ाज़ किया। मंटो की बेबाक रचनाओं में समाज के दबे कुचले और सताए हुए इंसानों की दर्द भरी आहें मौजूद हैं।

मंटो ने समाज के सड़े गले ज़ख्मों और नासूरों पर क़लम रूपी नश्तर को बेरहमी से चलाया है। ऐसा महसूस होता है कि सआदत हसन मंटो की रगों में लहू की जगह रोशनाई बहती थी। ख़यालात घटा बन कर आते और उस का क़लम बरस पड़ता। याद रहे कि मंटो समाजी कुरीतियों और बुराइयों पर पर्दा डालने के सख्त खिलाफ़ था। उसे समाज की तल्खी और कड़वाहट से सख्त नफरत थी। वो ताउम्र उन कुरीतियों और बुराइयों से बग़ावत करता रहा। उस के आर्ट में सर्जरी के तेज़ नश्तर मौजूद हैं। बग़ावत और प्रतिकार के कारण मंटो पर तरह तरह के आरोप लगे और अदालतों में मोक़दमे भी चले लेकिन मंटो ने कभी भी उस की परवाह नहीं की बल्कि वो ज़िन्दगी के आखिरी लहमे तक हाथ में नश्तर लिए सुसाइटी के कैंसर वार्ड में टहलता हुआ नज़र आया।

सआदत हसन मंटो की आँखें कबूतर जैसी तेज़ थीं जो बैल की खुर में फंसे सरसों के दानों को भी देख लेती हैं। मंटो ने समाज के मुख्तलिफ मौज़ुआत पर कहानियां लिखी हैं लेकिन उन के यहाँ महिला विमर्श का एक मज़बूत चेतना मौजूद है। उस ने महिलाओं की ज़िन्दगी के बेरहम सच्चाइयों और घिनौनी हकीक़तों को बेख़ौफ़ अंदाज़ में पेश किया है। “काली शलवार” “ठंडा गोश्त” “सड़क के किनारे” “हतक” “खोल दो” “जानकी” ”झुमके” ”महमूदा” ”सरकंडों के पीछे” “बर्मी लड़की” और “फुंदने” जैसी कहानियों में मंटो का आर्ट अपनी बुलंदियों पर नज़र आता है। इन अफसानों में औरत का वजूद सरापा ममता और मुहब्बत की शक्ल में मौजूद है। इन रचनाओं को पढ़ने के बाद हमारे दिलों में वेश्याओं से नफ़रतऔर घृणा की बजाय सहानुभूति पैदा हो जाती है। मंटों ने किसी तरह की लज्ज़त हासिल करने की ग़रज़ से वेश्याओं का ज़िक्र नही किया है बल्कि इस उपेक्षित तबके के प्रति उसे शदीद हमदर्दी थी। मंटो तवायफ़ों के काबिल-ए-रहम हालात से कुढ़ता था। मंटो के शब्दों में “हर औरत वेश्या नहीं होती लेकिन हर वेश्या औरत होती है” मंटो का ये साहित्यिक कमाल है कि वह तवायफ़ों की बेचैन रूह में झांक लेता था। मंटो ने अपने असहाय महिला पात्रों के माध्यम से तथाकथिक सभ्य समाज की विकृत सोच पर गहरा व्यंग किया है। उस की कहानियों से ये प्रतीत होता है कि मंटो वेश्याओं के दुखी आत्मा से संवाद करता है। मंटो ने अपने जिंसी अफसानों के सन्दर्भ में एक जगह लिखा है:

“ज़माने के जिस दौर से हम गुज़रे हैं, अगर आप उन से नवाकिफ़ हैं तो मेरे अफसाने पढ़िए। अगर आप उन अफसानों को बर्दाश्त नहीं कर सकते तो इस का मतलब ये है कि ये ज़माना नाकाबिल-ए-बर्दाश्त है। जिस नुक्स को मेरे नाम से मंसूब किया जाता है, वो दर अस्ल मौजूदा निज़ाम का नुक्स है“

मंटो के ये शब्द उस के विचार/नज़रिए को स्पष्ट तौर पर दर्शाता है। मंटो ने कहानियों के रूप में समाज को एक ऐसा आईना दिया है, जिस में ज़माने की गन्दगी और घिनौनापन साफ साफ नज़र आता है। मंटो इंसानी समाज का एक ऐसा सच्चा-खरा आलोचक है जिसे मानवीय मूल्यों और इंसानियत से प्यार है। जब वह समाज के किसी मसले पर सोचता है तो उस का क़लम ज़हर में डूब जाता है। मंटो उर्दू कथा साहित्य का एक ऐसा शिल्पकार जिसे साधारण बात को भी असाधारण बना कर पेश करने का हुनर आता है। वह किसी मसले को सरसरी तौर पर नही देखता बल्कि उस की गहराई में उतरने का हौसला रखता है। यही वजह है कि पाठक को उस के अफसानों के किरदारों से अपनेपन और हमदर्दी का एहसास होता है। अफसाना “हतक” की सौगन्धी और “खोल दो” की सकीना जैसे महिला पात्रों की ज़िन्दगी का अँधेरापन हमें अन्दर तक झिंझोड़ता है। सवाल इस बात का है कि ऐसे मासूम अदीब पर मुक़दमे क्यूँ चलाए गए? उस पर फ़हाशियत के इल्ज़ामात क्यूँ लगे? उसे सनकी और बदनाम अफसाना निगार क्यूँ कहा गया? शायद मंटो की यही ग़लती थी कि उस ने गंदगी/गलाज़त पर मिट्टी नहीँ डाली बल्कि उसे कुरेदा ताकि दुनिया समाज की तल्ख़/कड़वी सच्चाई को देख सके। मंटो का ख़याल था कि “तवायफ़ों और वेश्याओं का ज़िक्र अगर वर्जित है तो उन का वजूद भी वर्जित होना चाहिए।“ मंटो ने फहाशियत और अश्लीलता के जवाब में एक जगह लिखा है:

“मैं हंगामा पसंद नहीं हूँ। मैं लोगों के ख़यालात और जज़्बात में हैजान पैदा करना नहीं चाहता। मैं संस्कृति और सोसाइटी की चोली क्या उतारूंगा जो है ही नंगी। मैं उसे कपड़े पहनाने की कोशिश नहीं करता। ये मेरा नहीं दर्ज़ियों का काम है”

सआदत हसन मंटो मुल्क के विभाजन के सख्त खिलाफ़ था। उस ने विभाजन पर आधारिक कई अहम अफसाने लिखे हैं, जिस में इंसानों को रोते बिलखते देखा जा सकता है। खास तौर पर उस ने औरतों के दुःख-दर्द और आंसुओं को बेहद शिद्दत से बयान किया है। “टोबा टेक सिंह” मंटो की बेहद प्रसिद्ध कहानी है। इस कहानी में मंटो ने पागल किरदार के ज़रिये धर्म के ठेकेदारों और नेताओं पर गहरा व्यंग किया है। मंटो को किसी खास भाषा, ज़ात, संप्रदाय, धर्म, नस्ल, विचार या नज़रिए में क़ैद करना मुमकिन नहीं। विभाजन पर आधारिक अपनी प्रसिद्ध कहानी “सहाय” में मंटो ने लिखा है “ये मत कहो कि एक लाख हिन्दू और एक लाख मुसलमान मरे हैं बल्कि ये कहो कि दो लाख इन्सान मरे हैं” ये सच है कि मंटो ख़ालिस इंसानियत और मानवता का अदीब है। ख़ुद मंटो ने ज़िन्दगी और समाज को समझने के लिए किसी नज़रिए का सहारा नहीं लिया बल्कि उस ने बराह-ए-रास्त ज़िन्दगी से डिस्कोर्स क़ायम किया। यही वजह है कि उस के अफसानों और कहानियों में सहजता सार्वभौमिकता परिलक्षित होती है। मंटो के पास गज़ब की दूरदर्शिता थी। उन की साहित्यिक कृतियों में वो अपनी व्यक्तिगत अनुभवों को ही कहानियों में ढालता था। इस के लिए मंटो ने शराब खानों, जुआ के अड्डों और वेश्यालयों में काफी वक़्त गुज़ारा। हर तरह के इंसानों शराबी, जुआरी, चोर, उचक्कों से उस की दोस्ती थी। मंटों ने उन तमाम पात्रों को अपनी रचनाओं में खूबसूरती से उकेरा है।

मंटो ने लगभग 43 साल की मुख़्तसर ज़िन्दगी में ही दुनिया को अलविदा कह दिया। इस छोटी सी ज़िन्दगी में ही मंटो ने एक लम्बी लकीर खींच दी। वो अपनी अनमोल रचनाओं के बल पर हिन्दुस्तानी कथा साहित्य परंपरा की उस ऊंचाई पर विराजमान है जहाँ से दोनों तरफ ढलान है। मंटो का हर अफ़साना समाज के लिए एक आईना है। उस की ज़िन्दगी खुद में एक अफ़साना है, जहाँ मासूमियत, जुनून, बग़ावत, मुफ़लिसी और मज़लूमियत सब कुछ है। मंटो ने अपनी कहानियों के ज़रिये एक ऐसे समाज की कल्पना की है जहाँ इंसाफ और बराबरी हो। सुख और शांति हो। मंटो अपनी लेखन शैली और जीवन दर्शन के लिए हमेशा जिंदा रहेगा।

(लेखक दीन दयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर के उर्दू विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं)