जयन्ती पर विशेष✒️डॉ. मोनिका अवस्थी-डॉ. विजय श्रीवास्तव
पंडित दीनदयाल उपाध्याय एक विकेंद्रित समाज-रचना के हिमायती थे, जिसमें राष्ट्र और व्यक्ति के बीच सामंजस्य स्थापित हो सके। उनका मानना था कि व्यक्ति को विकास की पूर्ण स्वतंत्रता मिलनी चाहिए, और साथ ही राष्ट्र भी समर्थ और समृद्ध बने।
उनके अनुसार, राष्ट्र केवल एक भूभाग नहीं, बल्कि एक जीवित इकाई है। इसके सांस्कृतिक पक्ष को समझे बिना राष्ट्रवाद की कल्पना अधूरी है। यही कारण था कि वे पश्चिमी राष्ट्रवाद की अवधारणा को स्वीकार नहीं कर सके। उन्होंने मार्क्सवादी चिंतन के आधार पर विकास की संकल्पना को भी अस्वीकार किया। इसके स्थान पर वे भारत के सांस्कृतिक और आध्यात्मिक मूल्यों पर आधारित विकास को प्राथमिकता देते थे। यही कारण है कि उन्होंने भारत के सांस्कृतिक एकीकरण के लिए जगद्गुरु शंकराचार्य और राजनीतिक एकीकरण के लिए चंद्रगुप्त जैसे महापुरुषों के जीवन दर्शन को अपने विचारों में स्थान दिया।
आज जब भारत विकसित राष्ट्र बनने की दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहा है, दीनदयाल जी के विचार और भी प्रासंगिक हो उठे हैं। उनका ‘एकात्म मानववाद’ और ‘कोटि-कोटि जनों की एकता’ का संदेश आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक प्रगति का मार्गदर्शन करता है। उनके सिद्धांत पर्यावरण संरक्षण और सतत विकास की ओर भी संकेत करते हैं, जो वर्तमान वैश्विक चुनौतियों का समाधान प्रस्तुत करते हैं।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय का जीवन समर्पण, सेवा और नैतिकता का उदाहरण था। आज की युवा पीढ़ी के लिए यह आवश्यक है कि वे उनके विचारों को आत्मसात करें और राष्ट्र निर्माण में सक्रिय भूमिका निभाएं। सरकार, शैक्षणिक संस्थानों और समाज—सभी को मिलकर इस दिशा में कार्य करना होगा।
उनका दर्शन केवल एक विचार नहीं, बल्कि राष्ट्र निर्माण का दिशानिर्देश है। उनकी जयंती (25 सितंबर) पर हमें संकल्प लेना चाहिए कि उनके आदर्शों को पुनर्जीवित कर भारत को 2047 तक एक प्रगतिशील, समृद्ध और न्यायसंगत राष्ट्र के रूप में स्थापित करेंगे। निस्संदेह, दीनदयाल जी के विचार न केवल भारत, बल्कि सम्पूर्ण विश्व के लिए भी मार्गदर्शक सिद्ध होंगे।
