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पंडित दीन दयाल उपाध्याय जी की जयन्ती पर विशेषांक
25 सितम्बर..
पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी का समूचा जीवन समर्पण व संघर्षों की एक साक्षात मिसाल रहीं है। वे कुशल संगठनकर्ता, प्रखर राजनेता, और उत्कृष्ट समाजसेवी के अलावा एक महान लेखक, चिंतक, विचारक और दर्शनशास्त्री भी थे। मथुरा जिले के एक छोटे से गांव नगला चंद्रभान जो अब “पंडित दीनदयाल धाम” के नाम से विख्यात है, के रहने वाले पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी कैसे भारतीय जनजीवन के हृदय में एक महाप्राण के रूप में विराजमान हुए, यह अपने आप में अत्यंत ही गौरवशाली व अद्भुत तथ्य है। पंडित दीनदयाल जी थे तो एक राजनेता, किंतु उनका दर्शन केवल राजनीति तक ही सीमित नहीं थी, बल्कि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में व्यक्ति से समष्टि तक के उद्धारकर्ता के रूप में प्रतिष्ठित थे, राजनीति, अर्थनिति, समाज, संस्कृति आदि किसी भी क्षेत्र की समस्या क्यों न रही हो, उसके समाधान का सरल रास्ता हमें पंडित दीनदयाल जी के दर्शन में सहज ही परिलक्षित होते हैं।
समाजवाद, साम्यवाद, पूंजीवाद, आदि पश्चिम-प्रदत समस्त विचारधाराओं को जहां विफल होता देख पंडित दीनदयाल जी के मन में प्रश्न उठा कि इस वैचारिक दिग्भ्रमिता के समय में क्या विश्व को भारत कोई मार्ग दिखा सकता है? इसी प्रश्न पर उन्होंने अपने चिंतन के फलस्वरुप “एकात्म मानववाद” जैसे कालजयी सिद्धांत का सृजन किये । पंडित दीनदयाल जी के लिए साधारण मानव का सुख ही सच्चा आर्थिक विकास था, पंडित दीनदयाल जी के लिए गरीबी दूर करने का चिंतन केवल कागजी नहीं था, वरन वे उससे एकात्म स्थापित कर लेते थे, उनका स्वयं का जीवन अत्यंत सादगी और संयम से परिपूर्ण था, पंडित दीनदयाल उपाध्याय एक ऐसा नाम है जिसे सुनते ही लोगों के मानस पटल पर एक शब्द उभरता है “एकात्म मानववाद” और “अंत्योदय” पंडित दीनदयाल जी उन महापुरुषों में से एक हैं जिन्होंने लाखों युवाओं को राष्ट्रहित में कार्य करने की प्रेरणा दी। पंडित दीनदयाल जी के आरंभिक जीवन की यदि समीक्षा की जाए तो वह ऐसी अनगढ़ मूर्ति के रूप में प्रतीत होते हैं, जिसे ईश्वर रूपी मूर्तिकार ने समय-समय पर ऐसी छेनी से तराशा हो जो आज विश्व के सिरमौर भारत की प्रतिबिंब के सामयिक झलक परिलक्षित होते हैं। पंडित जी की गणना ऐसे विश्व प्रसिद्ध महानायकों में की जाती है जिनके जीवन का पल-पल आमजन के लिए शक्ति का स्रोत पुंज रहा। जब हम उनके जीवन के कृतियों पर प्रकाश डालते हैं तो ऐसे असंख्य प्रसंग सहज ही मानस पटल पर बरबस उभर जाते हैं जिनका अनुसरण मात्र ही एक साधारण व्यक्ति को भी असाधारण बनाने की क्षमता रखता है। नेतृत्व कौशल के अद्भुत धनी पंडित जी कहते थे कि केवल नारेबाजी से काम नहीं चलेगा, राष्ट्र के नवनिर्माण में जीवन का एक-एक क्षण समर्पित करना होगा और पूरे मनोयोग से जुड़ कर सिर्फ राष्ट्र हित की ही बात करनी होगी। एक प्रखर विचारकों दार्शनिक एवं भविष्य दृष्टा के रूप में पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी ने अनेकानेक विषयों पर अपना मंतव्य रखा है, जो वर्तमान परिस्थितियों में आज भी अत्यंत प्रासंगिक है। पंडित जी के विचार सार्वभौमिक सर्वकालिक सर्वस्पर्शी एवं सर्वसमावेशी हैं। सदाचार एक ऐसा पथ हैं जिन पर चलकर संपूर्ण मानवता का कल्याण संभव है।
पंडित जी ने आर्थिक परिदृश्य आर्थिक समस्याओं एवं उनके समाधान के बारे में जो अपने विचार प्रकट किए उसे दीनदयाल जी का अर्थ चिंतन कहा जाता है। दीनदयाल जी का संपूर्ण अर्थ चिंतन दो मान्यताओं पर आधारित है। पहला समाज व संसार के विभिन्न घटकों को अलग-थलग नहीं मानते हैं, विभिन्न इकाइयों में परस्पर पूरकता, परस्पर अनुकूलता, परस्पर निर्भरता, अर्थात एकात्मता है। मानव का सर्वांगीण विकास हमारी अर्थनीति व अर्थव्यवस्था का लक्ष्य होना चाहिए। उनकी दृष्टि के केंद्र में मनुष्य है, जिसका सर्वांगीण विकास ही उनका लक्ष्य है, मनुष्य का विकास केवल आर्थिक विकास नहीं, अपितु सर्वांगीण विकास है। रोजगार और सबको काम के संबंध में पंडित जी कहते हैं कि मानव को पेट और हाथ दोनों मिले हुए हैं, इसीलिए हाथों को काम और पेट को भोजन मिलता रहे तभी मनुष्य सुखी रह सकता है। प्रत्येक को काम अर्थव्यवस्था का लक्ष्य होना चाहिए। पंडित जी यह भी कहते थे कि ‘प्रत्येक को वोट’ जैसे राजनीतिक प्रजातंत्र का निकष है, वैसे ही प्रत्येक को काम यह आर्थिक प्रजातंत्र का मापदंड है। वो कहते थे हमें विदेशी पूंजी, विदेशी तकनीकी, एवं विदेशी माल का कम से कम प्रयोग करना चाहिए, अपना विकास अपने बलबूते करने की दिशा में ही हमें आगे बढ़ना चाहिए, तभी हम स्वदेशी, स्वावलंबी अर्थतंत्र का मजबूत ढांचा खड़ा कर पाएंगे। दीनदयाल जी केंद्रीकरण के पक्षधर नहीं थे, उनके अनुसार हमें व्यक्ति व परिवार आधारित लघु एवं कुटीर उद्योगों की विकेंद्रीकृत प्रणाली के विकास पर जोर देना चाहिए और श्रम प्रधान केंद्रित ग्राम उद्योगों को सुदृढ़ करना चाहिए। दीनदयाल जी ने अर्थदृष्टि अर्थात अर्थसंस्कृति के संबंध में अर्थायाम नाम से एक नई संकल्पना दी, जिसके अनुसार समाज से अर्थ के प्रभाव एवं आभाव दोनों को मिटाकर एक समुचित व्यवस्था करने को अर्थयाम कहा गया। वह राष्ट्र और समाज को अर्थ विकृति से हटाकर अर्थ संस्कृति की ओर ले जाना चाहते थे।
तत्कालिक समय वैश्वीकरण का युग है। यहां नित्य नये सामाजिक सरोकार आर्थिक एवं राजनैतिक प्रारूप परिलक्षित हो रहे हैं। पंडित जी ने भारत के लिए कैसे आर्थिक मॉडल की संकल्पना की थी जिसमें सब को समाहित करने का गुण विद्यमान था। उन्हें बखूबी पता था कि रोजगार के बिना विकास की बात करना बेईमानी साबित होगी। राष्ट्र को आत्मनिर्भर बनाने के लिए हमें शोध एवं सोच की दिशा में बदलाव लाना होगा, ताकि हमारा राष्ट्र पुनः विश्व गुरु बन कर उभरे।
राष्ट्र की अपनी चित अर्थात राष्ट्रीय मूल्य संस्कृति एवं लक्ष्य होते हैं। पंडित दीनदयाल जी चित के अनुसार शिक्षा व्यवस्था के पक्षधर थे। नई शिक्षा नीति में त्रिभाषा-समग्र, संज्ञानात्मक विकास, वोकेशनल व पाठेयत्तर पाठ्यक्रम क्रियाकलाप- सृजनशीलता व स्वउद्यम की प्रेरणा, बहुअनुशासित पाठ्यक्रम, बहुउद्देशीय एकीकृत शोध की जरूरत है, साथ ही वंचितों को शिक्षा के द्वारा मुख्यधारा में लाने का प्रावधान तथा समग्र व एकीकृत नीति लक्ष्य निर्धारण हेतु एक नियमावली की स्थापना आदि बातें पंडित दीनदयाल जी के शैक्षिक विचारों को प्रतिबंधित करती है l
पूर्ण विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि भारत और भारतीयता के अनुरूप नई शिक्षा नीति शिक्षा व्यवस्था में पंडित दीनदयाल जी के सपनों को साकार करेगी।
एकात्मता भारतीय संस्कृति का केंद्रीय विचार है। एकात्मता का दर्शन मानव का दर्शन है, मानव की सामाजिक यात्रा शिक्षा से मार्गदर्शन होती हैl पंडित दीनदयाल जी मानते हैं कि शिक्षा ही व्यष्टि और समष्टि में सामंजस्य पूर्ण संबंध स्थापित करने का कार्य करती है, शिक्षा ही समाज की जननी है, शिक्षा एक संपूर्ण सामाजिक प्रक्रिया है, जो केवल पाठशाला तक सीमित नहीं है बल्कि समाज का प्रत्येक घटक शिक्षा देने का कार्य करता है, शिक्षा का संबंध जितना व्यक्ति से है उससे अधिक समाज से हैं। शिक्षा केवल औपचारिक है केवल एक विशेष अवधि में सीमित नहीं है, अपितु एक संपूर्ण एवं सतत प्रणाली है जो व्यक्ति को संस्कारित कर उसे पशुता से ऊपर उठाती है। समाज और राष्ट्र के सर्वांगीण विकास में यह संजीवनी औषधि है, शिक्षा की उपयोगिता इस बात में निहित है कि हमारे समग्र सुख लौकिक एवं पारलौकिक कि साधक बन सके, शिक्षा का अंतिम लक्ष्य आत्म साक्षात्कार है, इसे ही परमानंद या मुक्ति भी कहा गया है। पंडित जी की स्वभाषा अभिषेक चिंतन को नई शिक्षा नीति में स्वीकार करते हुए त्रिभाषा का प्रावधान बालकों में समग्र संवेदनाओं को जागृत करने में सहायक सिद्ध होगा, पंडित जी की शिक्षा त्रयी की अवधारणा के अंतर्गत मानते हैं कि शिक्षा केवल औपचारिक उपक्रम मात्र नहीं है, वरन संपूर्ण सामाजिक प्रक्रिया है, पंडित जी व्यक्ति को स्वयं का शिक्षक मानते थे, वह स्वाध्याय के बहुत बड़े पक्षधर थे, और कहते थे कि स्वयं के द्वारा किया गया अध्ययन ही मनुष्य का वास्तविक ज्ञान है l पठन, मनन और चिंतन के सहारे मनुष्य ज्ञान को आत्मसात करता है, बिना स्वाध्याय के ना तो प्राप्त ज्ञान टिकता है, और ना ही बढ़ता है, वह बताते थे कि स्वाध्याय के बिना ज्ञान को जीवन का अंग बना कर तेजस्वी बनने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। इसलिए पंडित दीनदयाल जी समाज में शिक्षा में वातावरण के लिए घर व नगर में पुस्तकालय की स्थापना तथा पठन-पाठन का प्रवेश बनाने पर अत्यधिक जोड़ देते थे, आज नई शिक्षा नीति में बहु विषयक एवं अंतर विशेष अध्ययन की आवश्यकता को महसूस किया जा रहा है। ऐसी ही संकल्पना पंडित दीनदयाल जी द्वारा बालक के विकास हेतु पाठ्यचर्या के निर्माण के संबंध में की गई थी, वह पाठ्यचर्या के निर्माण को कई आधार पर करने की बात करते थे। जिसमें बौद्धिक विकास, भावात्मक विकास, नैतिक विकास, शारीरिक विकास, तकनीकी विकास, सांस्कृतिक विकास, आदि की दृष्टि से पाठ्यचर्याओं का निर्माण होना चाहिए l उनकी दृष्टि में मानव की भौतिक एवं आध्यात्मिक प्रगति शिक्षा से ही संभव है। पंडित जी के शिक्षा संबंधित विचार और उस पर आधारित जो नई शिक्षा नीति बनी है, वह निश्चित रूप से राष्ट्र के नवनिर्माण में सहायक सिद्ध होगी।
जिस तरह शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा के समुच्चय से व्यक्ति बनता है, उसी तरह पारस्परिक अंत:क्रिया, संकल्पों, नियमों, मूल्यों, परंपराओं और आदर्शों के समुच्चय से समाज बनता है, इन दोनों इकाइयों में एकात्मता पाई जाती है, तथा इन दोनों तत्वों से मिलकर ही पुरुषार्थ बनता है। पुरुषार्थ केवल व्यक्ति के ही नहीं, वरन समाज के भी होते हैं। ये पुरुषार्थ एक दूसरे के विपरीत होते हुए भी एक दूसरे के पूरक हैं। समष्टि का हित ही व्यष्टिगत आचरण के धर्म-अधर्म को सुनिश्चित करता है एवं व्यक्ति अपने कर्मों के द्वारा ही अपनी आत्मा की अभिव्यक्ति करता है, जो सामाजिक संरचना की नींव बनते हैं। पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी ऐसी चिंतन पर सामाजिक ढांचे के नव निर्माण की बात करते हैं। पंडित दीनदयाल जी समाज जीवन के सहज विकास के पक्षपाती थे तथा परिवर्तन के लिए परिवर्तन एवं क्रांति की भाषा बोलने वालों से भी असहमत है। वे सामाजिक सनातनता के समर्थक हैं एवं परंपरा को अपरिवर्तनीय नहीं वरन प्रवाह के रूप में परिभाषित करते थे।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी एक अद्भुत चिंतक विचारक और लेखक है, उन्होंने अपने रचना संसार में सम्राट चंद्रगुप्त, जगद्गुरु शंकराचार्य, भारतीय अर्थनीति विकास की एक दिशा, विश्वासघात, एकात्म मानववाद, राष्ट्र-चिंतन, पॉलिटिकल डायरी, राष्ट्र जीवन की दिशा, सहित अनेकानेक रचनाएं की है,
पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी एक ऐसे महान व्यक्तित्व हैं जिन्हें शब्दों में समेट पाना अत्यंत ही कठिन कार्य है। वस्तुतः यह उनके व्यक्तित्व का विस्तार था, जो उन्होंने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रत्येक क्षण अपनी श्रेष्ठता को प्रमाणित किया। विद्वान उच्च कोटि के विचारक, प्रगतिशील लेखक, कुशल पत्रकार, समर्पित समाज सेवक, निर्मल राजनैतिक, निडर आंदोलनकर्ता इन विभिन्न रूपों से युक्त एक साधारण से दिखने वाले दिखने वाले मृदुभाषी, स्नेही, सहृदय, संयमी, परिश्रमी व्यक्ति यही पंडित दीनदयाल जी की वास्तविक पहचान हुआ करती थी, सामाजिक बंधनों से मुक्त साधारण में असाधारण की परिभाषा लिए हुए शून्य से शिखर, मनुष्य से महात्मा, तक की यात्रा के पर्याय पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी भारतीय संस्कृति दर्शन, धर्माशास्त्र तथा राजनीति के प्रकांड-ज्ञाता थे, राष्ट्रीय एवं मानव जीवन से संबंधित प्रत्येक विषय का उन्होंने बड़ी गहनता और सूक्ष्मता से अध्ययन किया था। यदि सच कहा जाए तो वह जगतगुरु शंकराचार्य स्वामी विवेकानंद कहा तथा महात्मा गांधी जैसे महान व्यक्तियों के मिश्रित स्वरूप थे। राष्ट्र के कण-कण व जन जन के उत्थान और विकास के स्वप्न-दृष्टा महानायक पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी के वास्तविक व्यक्तित्व और स्वरूप को आज देश का जन-जन आत्मसात कर रहा है, सच्चे अर्थों में आज उनके जयंती विशेष पर देश और सरकार के कार्यो की यहि वास्तविक प्रगति व सच्ची राष्ट्रीयता है ।
अजय तिवारी, वाणिज्य प्रवक्ता
(यह लेखक के विचार हैं)
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