जल थल बिकता है आज जमाने में,
धरती बिकती, गगन बिकने वाला है,
जमीं चाँद की बिकती है, डर है अब
कि सूर्य का ताप भी बिकने वाला है।
स्वार्थ की दुनिया, नियति बिकती है,
डर तो यह है कि धर्म न बिक जाये,
रिश्वत का ताना बाना बुनते हैं सब,
डर है कि कहीं वतन न बिक जाये।
दानव दहेज का ऐसा व्याप्त है कि,
दूल्हे के हाथों दुल्हन न बिक जाये,
सांसद और विधायक बिकाऊ हैं,
डर है संसद भवन भी न बिक जाये।
किडनी है बिकती, लीवर है बिकता
आँखें हैं बिकती, दिल बिकने लगे हैं,
प्राण निकलने पर मुर्दा है डरता कि,
उस पर पड़ा कफ़न भी न बिक जाये।
हर शय जहाँ की बिकने लगी आज,
लालच व स्वार्थ में नियति बेंच डालें
आदित्य डरता हूँ अब इस जमाने से,
ख़ुदा की बनाई खुदाई न बेंच डालें।
कर्नल आदि शंकर मिश्र ‘आदित्य’
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