
✍🏻कर्नल आदि शंकर मिश्र ‘आदित्य
आज भारतीय राजनीति का स्तर समाज को किस तरह से उद्वेलित कर रहा है और सामाजिक व धार्मिक तानाबाना उलझता जा रहा है, सत्ता लोलुपता के कारण इसका कोई समाधान निकट भविष्य में नहीं दिखाई दे रहा है।
महात्मा बुद्ध को श्री हरि विष्णु का अवतार माना जाता है जिनका जन्म इक्ष्वाकु वंश के क्षत्रिय सम्राट शुद्धोधन के यहाँ 563 ईसा पूर्व हुआ था और निर्वाण 483 ईसा पूर्व में हुआ था। उनका बचपन का नाम सिद्धार्थ था। उन्होंने अपना परिवार त्याग कर राज सत्ता भी छोड़ दी थी और ज्ञान प्राप्ति के उद्देश्य से कई वर्षों तक बृहद साधना की थी और ज्ञान प्राप्ति के उपरांत महात्मा गौतम बुद्ध कहलाये।उनके निर्वाण के उपरांत उनके अनुनाईयों ने बौद्ध धर्म का बृहद प्रचार किया। सम्राट अशोक (जो स्वयं अशोक महान कहलाये) ने विश्व के तमाम देशों में अपने प्रचारकों को यहाँ तक कि अपने पुत्र व पुत्री को बौद्ध धर्म के प्रचार प्रसार का उत्तरदायित्व दिया था और इस प्रकार बौद्ध धर्म कई एशियाई देशों में फैला। आज भी बौद्ध धर्म के मानने वाले न केवल भारत में, एशिया में बल्कि विश्व भर में फैले हुए हैं।
महात्मा बुद्ध के निर्वाण के उपरान्त लगभग 2400 साल बाद सन् 1869 में मोहनदास कर्मचन्द्र गाँधी का जन्म भारत के गुजरात प्रांत के कठियावाड़ ज़िले के पोरबंदर में हुआ। प्रतिभावान व्यक्तित्व के धनी मोहनदास कर्मचन्द्र गाँधी आज किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। पूरा विश्व उन्हें महात्मा गाँधी के नाम से जानता है और मानता है।
यहाँ इन दोनों महात्माओं का उल्लेख करना इसलिए आवश्यक हो गया है कि आज भारतीय राजनीतिक विद्रूप की वजह से इन दोनों के बीच तुलना की जाने लगी है जो क़तई उचित नहीं है बल्कि अवाँछनीय भी है।
महात्मा बुद्ध जहाँ श्री हरि विष्णु के अवतार माने जाते हैं वहीं महात्मा गाँधी विष्णु अवतार श्रीराम और श्री कृष्ण के अनन्य भक्त थे। जन्म से महात्मा बुद्ध क्षत्रिय राजवंशी राजपूत थे वहीं महात्मा गाँधी वैश्य वंश की संतान थे। परंतु दोनों ही ने हिंदू धर्म में ही जन्म लिया था। राजनीतिक स्वरूप तो इतना विद्रूप हो चुका है कि महात्मा गाँधी की तुलना महात्मा बुद्ध से की जाने लगी और महात्मा बुद्ध की तुलना श्रीराम व श्रीकृष्ण से की जाने लगी है। इतना ही नहीं बौद्ध धर्म की तुलना हिंदू सनातन धर्म से भी की जा रही है बल्कि इससे भी अधिक सनातन धर्म की आलोचना भी की जाने लगी है।
भारतीय राजनीति में मुग़लों और अंग्रेजों का शासन हज़ारों साल रहा। अंग्रेजों से आज़ादी की लड़ाई हिंदू, मुस्लिम, सिख, बौद्ध और अन्य सभी धर्मों के भारतीयों ने लड़ी। 1857 के संग्राम में झाँसी की रानी से प्रारंभ यह संग्राम तात्या टोपे, मंगल पाण्डे, टीपू सुल्तान, बहादुर शाह ज़फ़र और चाँद बीबी से लेकर 1947 तक जारी रहा। देश आज़ाद हुआ। आज़ादी की लड़ाई में हर भारतीय का योगदान रहा है। चाहे महात्मा गाँधी हों, लाला लाजपतराय, बाल गंगाधर तिलक, बिपिनचन्द्र पाल हों या अन्य क्रांतिकारी पंडित मोतीलाल नेहरू, सरदार भगत सिंह, राजगुरु, राम प्रसाद बिस्मिल, चन्द्र शेखर आज़ाद या फिर डा० राजेंद्र प्रसाद, पंडित जवाहर लाल नेहरू, बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर, सरदार वल्लभ भाई पटेल, सुभाष चंद्र बोस, मौलाना आज़ाद, मुहम्मद अली जिन्ना, अल्लामा इकबाल, लियाकत अली खान, अब्दुर रब निशतर, हुसेन शहीद सुहरावर्दी, एके फजलुल हक, बेगम जहां आरा शाहनवाज आदि हज़ारों क्रांतिकारी इस स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल थे।इन सबका उल्लेख उतना आवश्यक नहीं है जितना कि इन सबके बीच आज तुलना की जा रही है।
महात्मा गाँधी की तुलना कहीं महात्मा बुद्ध से, कहीं बाबा साहेब भीमराव अंबेदकर से, अंबेडकर की तुलना पंडित जवाहर लाल नेहरू से और नेहरू की तुलना सरदार पटेल या सुभाष चंद्र बोस से !
यह सर्व विदित है कि ये सभी महा पुरुष थे क्रांतिकारी थे और आज़ादी के लिये अंग्रेज़ी शासन सत्ता से बेख़ौफ़ अपने अपने तरीक़े से लोहा लेते रहे, लेकिन एक दूसरे की राय से और एक दूसरे के सहयोग से, समर्थन से। भले ही आपसी मतभेद रहे हों उन सबके बीच परंतु उन सबके लिए भारत राष्ट्र की एकता सर्वोपरि थी।इसी एकता की वजह से देश आज़ाद हुआ।
आज वर्तमान राजनीति में न केवल घोर मतभेद हैं बल्कि घातक मनभेद भी हैं। राजनीतिक सत्ता लोलुपता धर्म को धर्म से, जाति को जाति से भाषा को भाषा से, क्षेत्र को क्षेत्र से नीचा दिखाने का कोई भी अवसर नहीं छोड़ती, बल्कि यह कहना अनुचित नहीं होगा कि आज हम पीछे के उस विगत संक्रमण काल में लौट रहे हैं जहाँ एक राजा दूसरे राजा से राज्य छीनने के लिये लालायित रहता था, यहाँ तक कि विदेशी आतताईयों से मिल जाते थे और उनके समर्थन/ सहयोग से राज्य छीन कर विदेशियों को देने में भी नहीं हिचकते थे जिसके फलस्वरूप पहले देश मुग़लों का और फिर अंग्रेजों का ग़ुलाम हुआ।
प्रजातंत्र की सत्ता किसी एक दल, एक व्यक्ति की, एक परिवार की नहीं होती है। भारत में भी इस तन्त्र का एक विस्तृत लिखित संविधान है, विस्तृत क़ानून है। लोकतंत्र के मज़बूत स्तंभ विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका हैं। चौथा स्तंभ निष्पक्ष पत्रकारिता भी देश में मज़बूत खड़ी है। फिर भी देश में जो वातावरण देश की राजनीतिक कुरूपता की वजह से बन चुका है उसकी वजह से न केवल समाज बल्कि धर्म पर भी उद्वेलन अतिरेक पैदा हो चुका है। इस उद्वेलन अतिरेक को नियंत्रित करने की महती आवश्यकता है और यह नियंत्रण भारतीय लोकतंत्र के चारों स्तंभों को समन्वय बनाकर करना पड़ेगा और यह ध्यान रखना होगा कि इसमें विलंब न किया जाये ताकि परिस्थितियाँ सदियों पहले की ग़ुलामी जैसी उत्पन्न न होने पाये।
जय हिन्द, जय भारत, बंदे मातरम्।
— कर्नल आदि शंकर मिश्र ‘आदित्य’
More Stories
संस्कृत पढ़ने गया विनय बना खूनी!
मोहर्रम का मातमी जुलूस श्रद्धा और अकीदत के साथ संपन्न, दुलदुल घोड़ा बना आकर्षण का केंद्र
प्रेम की जीत: मुस्लिम युवती ने हिंदू युवक से की मंदिर में शादी, अपनाया नया नाम