✍️ कैलाश सिंह
महराजगंज (राष्ट्र की परम्परा)। आज का समाज एक अनोखी रेस का हिस्सा बन चुका है—एक ओर सदियों से चली आ रही परंपराएँ और रिवाज, तो दूसरी ओर तेज़ रफ्तार वाली आधुनिकता। सवाल यह है कि इस दौड़ में जीत आखिर किसकी होगी, या क्या समाज इन दोनों के बीच कोई नया संतुलन खोज पाएगा?
परंपराएँ समाज को पहचान और जड़ें देती हैं। पीढ़ियों से चले आ रहे रिवाज जीवन में अनुशासन, संस्कार और सामूहिकता की सीख देते रहे हैं। परिवार व्यवस्था, सामाजिक मर्यादाएँ और सांस्कृतिक मूल्य इन रिवाजों से ही बनते हैं।
दूसरी ओर, तेज़ रफ्तार वाली जीवनशैली आधुनिक दौर की पहचान बन चुकी है—जहाँ समय बचाना, आगे बढ़ना और व्यक्तिगत सफलता सर्वोच्च मानी जाती है। समस्या तब उभरती है जब यही रफ्तार रिश्तों और संवेदनाओं को पीछे छोड़ देती है।
परिवारिक ढांचे पर गहरा असर
संयुक्त परिवारों की जगह एकल परिवारों का चलन बढ़ रहा है। संवाद की जगह संदेशों ने ले ली है और साथ की जगह व्यस्तता ने। बुजुर्ग अपने अनुभवों के साथ अकेले होते जा रहे हैं, जबकि युवा उपलब्धियों की दौड़ में मानसिक थकान झेल रहे हैं।
रिवाज कई बार स्थिर और धीमे लगते हैं, जबकि आधुनिकता की रफ्तार विचारों को सतही और क्षणिक बना देती है।
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तकनीक ने बदल दी जीवन की दिशा
मोबाइल, इंटरनेट और सोशल मीडिया ने रफ्तार को नई ऊंचाइयाँ दी हैं। दुनिया अब हाथों में है, लेकिन रिश्ते दूर होते जा रहे हैं। त्योहार अब संस्कृति से अधिक ‘कंटेंट’ बनकर रह गए हैं—दिखावा बढ़ रहा है और भावनाएँ कम होती जा रही हैं।
जड़ों से कटने का खतरा
सबसे बड़ा डर यह है कि कहीं समाज अपनी जड़ों से पूरी तरह न कट जाए।
• रिवाज बिना आधुनिक सोच के बोझ बन जाते हैं।
• रफ्तार बिना संस्कारों के दिशाहीन हो जाती है।
इस रेस में जीत किसी एक की नहीं, बल्कि संतुलन की होगी। जब परंपराएँ समय के साथ बदलें और आधुनिकता संस्कारों का सम्मान करे, तभी समाज सही दिशा में आगे बढ़ सकता है। अन्यथा, मुद्दा सिर्फ जीत का नहीं रहेगा, बल्कि पहचान बचाने का भी होगा।
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