अज्ञान मित्र
- महामंडलेश्वर स्वामी भास्करानंद
सिकन्द्रपुर /बलिया(राष्ट्र की परम्परा)
क्षेत्र के दुहा बिहरा गांव में सरयू तट पर आयोजित अद्वैत शिवशक्ति राजसूय महायज्ञ पूर्व की भांति वैदिक यज्ञमंडप के तहत चल रहा है। यक्षाचार्य पं. रेवती रमण तिवारी अपने साथी पुरोहितों के साथ सक्रिय हैं। इस अवसर पर भक्तिभूमि श्रीधाम वृन्दावन से यहां पहुंचे महामंडलेश्वर आचार्य स्वामी भास्करानंद जी महाराज ने शाम के सत्र में व्यासपीठ से श्रद्धालुओं को संबोधित करते हुए कहा कि दक्षिण भारतीय तो त्रिपुंड पहनते हैं लेकिन उत्तर भारतीयों को शर्म आती है। भगवान और भक्त में, ब्रह्म और सत्ता में, बर्फ और पानी की तरह कोई अंतर नहीं है। हम अमृत स्वरूप भगवान के पुत्र होते हुए भी दुःख क्यों भोग रहे हैं?- यह विषय विचारणीय है। मतलब की हद तक प्यार करना दुनिया की रीत है, दुनिया भले ही छूट जाए लेकिन शिव (कल्याणकारी) भगवान अपने भक्तों को नहीं छोड़ सकते.
कहा कि भ्रमात्मिका माया हमे प्रभु सेविलग करती है। जैसे हम स्वप्न देखते हैं वैसे ही संसार ब्रह्मसत्ता का स्वप्न है। यहाँ सत्य कुछ भी नहीं। अज्ञ लोग श्रुति वाक्य ‘न तस्य प्रतिमास्ति’ का प्रमाण देते हुए मूर्तिपूजा का निषेध करते हैं किन्तु वेदार्थ नहीं’ समझ पाते कि यहाँ प्रतिमा का अर्थ सादृश्य अर्थात् बराबरी है। आप जिसकी पूजा करेंगे उसका गुण आप में आयेगा। भगवान को पूजा की आवश्यकता नहीं, आवश्यकता है हम सबको । ध्यान रहे कि भावमय पूजन ही भगवान को स्वीकार्य है। जप का भी बड़ा महत्त्व है- जपात् सिद्धिः । स्वगृह के बाद क्रमशः गोशाला, जलाशय, पीपल के नीचे, देवालय, सप्तगंगाओं के किनारे जप का दशगुना फल मिलता है। जहाँ शिवलिंग न हो वहाँ पार्थिव शिवलिंग की पूजा का विधान है। कृष्ण बाँसुरी के माध्यम से शिवाराधन करते हैं तो राम स्वयं शिवलिंग की स्थापना-पूजा करते हैं। मानस स्वतः प्रमाण है कि शिवाराधन किये बिना इच्छित फल की प्राप्ति असम्भव है :-
इच्छित फल बिनु शिव अवराधे । मिलङ् न कोटि जोग जप साधे ।। अतः सिद्ध हो रहा है कि शिवाराधन सबके लिए अनिवार्य कृत्य है। स्वामीजी ने बताया कि भगवत्- भजन में तीन बातें आवश्यक है।१) परमात्मा
से प्रीति थे नीतिपूर्ण आचरण और (३) सद्गुरु से मन्त्रदीक्षा | यदि कहीं जाने-आने में असमर्थता है तो मानसिक पूजा भी की जा सकती है, इसका बहुत बड्डा महत्त्व है। अनेक भक्तों ने मानसिक पूजा का आदर्श प्रस्तुत किया है। कहा कि शिव नैवेद्य न खाने का तर्क निर्मूल है क्योंकि वह जन्म-मरण का बन्धन छुड्डाने वाला है। शिवलिंग के प्रसाद का निरादर प्रभु को क्षम्य नहीं है। शिवपुराण में भस्मी का महत्त्व वर्णित है, उसे सादर नहीं लगाया तो परिणाम दुःखद होगा। विषपान, त्रिपुण्ड और भस्मी महादेव को प्रिय हैं। समाधि से उठे शंकर के टपके प्रेमाश्रु से रुद्राक्ष बना। रुद्राक्षधारी व्यक्ति को मदिरापान और मांसभक्षण कदापि नहीं करना चाहिए। शेव-वैष्णव मतावलम्बियों का आपसी मतभेद अज्ञानता है।
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