शिशु सुरक्षा दिवस उस सामूहिक प्रतिबद्धता का प्रतीक है जिसके माध्यम से समाज, परिवार और शासन बच्चों के जीवन, अधिकारों और भविष्य को सुरक्षित बनाने का संकल्प दोहराते हैं। यह दिवस स्मरण कराता है कि किसी भी राष्ट्र की प्रगति तभी सार्थक है, जब उसके बच्चे सुरक्षित, स्वस्थ और भयमुक्त वातावरण में पल-बढ़ सकें। शिशु सुरक्षा कोई औपचारिक अवधारणा नहीं, बल्कि सामाजिक दायित्व है जो प्रत्येक नागरिक से अपेक्षा करता है कि वह बच्चे के हित को सर्वोपरि माने।
आज के दौर में तकनीकी विकास और सामाजिक परिवर्तन ने जहाँ बच्चों के लिए नए अवसरों के द्वार खोले हैं, वहीं जोखिमों के स्वरूप को भी जटिल बनाया है। कुपोषण, घरेलू हिंसा, बाल श्रम, तस्करी, दुरुपयोग, ऑनलाइन शोषण और मानसिक उत्पीड़न जैसी समस्याएँ अभी भी बच्चों के सुरक्षित भविष्य को चुनौती देती हैं। इसी पृष्ठभूमि में शिशु सुरक्षा दिवस हमें याद दिलाता है कि बाल अधिकारों की रक्षा सतत प्रयासों और सामूहिक जागरूकता से ही संभव है।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संयुक्त राष्ट्र की बाल अधिकार संधि ने यह स्पष्ट किया है कि हर बच्चे का जीवन, स्वास्थ्य, शिक्षा, सुरक्षा, सम्मान और सहभागिता पर पूर्ण अधिकार है। भारत ने इस संधि को स्वीकार करते हुए कानूनों और संस्थागत ढाँचे को मजबूत किया है— किशोर न्याय अधिनियम, बाल संरक्षण इकाइयाँ, चाइल्डलाइन सेवाएँ और विभिन्न सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रम इसी दिशा में किए गए महत्त्वपूर्ण कदम हैं। इन तंत्रों का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि कोई भी बच्चा उपेक्षा, हिंसा या शोषण का शिकार न बने।
बाल अधिकार कार्यकर्ता नवनीत मिश्र कहते हैं कि बच्चों की सुरक्षा किसी भी सभ्य समाज की प्राथमिक शर्त है। उनका मानना है कि परिवार, विद्यालय और शासन— तीनों की संयुक्त जिम्मेदारी है कि वे बच्चों के लिए ऐसा वातावरण तैयार करें जहाँ वे भय और उपेक्षा से दूर रहकर आत्मविश्वास के साथ विकसित हो सकें। वे यह भी बताते हैं कि बच्चों की शिकायतों और भावनाओं को गंभीरता से सुनना ही वास्तविक बाल संरक्षण की आधारशिला है।
वास्तविक सुरक्षा केवल कानूनों से नहीं आती; यह परिवार और समुदाय की सतर्कता व संवेदनशीलता से उत्पन्न होती है। माता-पिता द्वारा बच्चों को सुरक्षित वातावरण प्रदान करना, विद्यालयों में बाल-अनुकूल नीतियाँ अपनाना, और समाज में संदिग्ध गतिविधियों पर जागरूक दृष्टि रखना— ये सभी पहलू बच्चों की सुरक्षा चक्र को मजबूत बनाते हैं। शिक्षकों, स्वास्थ्यकर्मियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की भूमिका भी महत्वपूर्ण होती है, क्योंकि वे बच्चों की स्थिति को नजदीक से समझते हैं और समय रहते हस्तक्षेप कर सकते हैं।
डिजिटल युग के आगमन ने शिशु सुरक्षा को एक नए रूप में प्रस्तुत किया है। इंटरनेट पर मिली स्वतंत्रता बच्चों के लिए ज्ञान का साधन है, परंतु साइबर बुलिंग, फेक पहचान, अनुचित सामग्री और ऑनलाइन शोषण जैसी चुनौतियाँ भी उतनी ही गंभीर हैं। ऐसे में आवश्यक है कि परिवार और शिक्षण संस्थान बच्चों को सुरक्षित डिजिटल व्यवहार सिखाएँ— व्यक्तिगत जानकारी की सुरक्षा, संदिग्ध लिंक से सतर्कता, और किसी भी असहज स्थिति की तत्काल सूचना देना।
शिशु सुरक्षा दिवस हमें इस व्यापक सोच से जोड़ता है कि प्रत्येक बच्चा समाज की सामूहिक जिम्मेदारी है। किसी भी प्रकार की हिंसा या उपेक्षा को सामान्य नहीं माना जा सकता। बच्चों की आवाज़ कमजोर अवश्य होती है, परंतु समाज का कर्तव्य है कि उसकी रक्षा में अपनी आवाज़ मजबूत करे। यह दिवस हमें प्रेरित करता है कि हम संवेदनशीलता, सतर्कता और सहयोग की भावना के साथ बाल संरक्षण को सर्वोच्च प्राथमिकता दें, क्योंकि सुरक्षित बचपन ही मजबूत और प्रगतिशील समाज की नींव है।
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