पुनीत मिश्र
भारत के स्वतंत्रता संग्राम और राष्ट्र-निर्माण की लंबी यात्रा कुछ ऐसे व्यक्तित्वों के बिना अधूरी है, जिन्होंने न केवल अपने समय का नेतृत्व किया बल्कि आने वाली पीढ़ियों का मार्ग भी प्रशस्त किया। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ऐसे ही महानायक थेl विनम्रता, वैचारिक दृढ़ता, न्यायप्रियता और कर्मनिष्ठा की जीवित प्रतिमूर्ति। उनकी जयंती और अधिवक्ता दिवस का यह संयुक्त अवसर याद दिलाता है कि एक सच्चे वकील, निष्ठावान स्वतंत्रता सेनानी और आदर्श राष्ट्रनायक में कौन-सी विशेषताएँ होती हैं।
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद का व्यक्तित्व भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का एक अनुकरणीय अध्याय है। चम्पारण सत्याग्रह में महात्मा गांधी के सबसे भरोसेमंद साथियों में से एक के रूप में उन्होंने न्याय के लिए कानून की चौखट से आगे बढ़कर जनसेवा को अपना धर्म बना लिया। कलकत्ता हाईकोर्ट के सफल अधिवक्ता के रूप में उनका करियर जितना गौरवपूर्ण था, उतना ही महान था उसे छोड़कर देश की स्वतंत्रता के लिए समर्पित हो जाना। यह त्याग उनके चरित्र की ऊँचाई को दर्शाता है।
भारत की संविधान सभा के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने जिस धैर्य, संयम, सरलता और समावेशिता के साथ विभिन्न विचारधाराओं को एक सूत्र में पिरोया, वह आज भी भारतीय लोकतंत्र की मौलिक शक्ति है। संविधान निर्माण के इतिहास में उनका योगदान केवल प्रक्रियागत भूमिका नहीं बल्कि भारतीय राज्य की आत्मा को आकार देने का कार्य था। उनके नेतृत्व में संविधान सभा संवाद, समन्वय और राष्ट्रदृष्टि का प्रतीक बन गई।
स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति के रूप में डॉ. प्रसाद ने पद की मर्यादा, सादगी और कर्तव्यनिष्ठा का ऐसा उदाहरण प्रस्तुत किया, जो आज भी सर्वोच्च संवैधानिक पद की गरिमा का मानदंड है। वे परिस्थितियों से ऊपर उठकर राष्ट्रहित को सर्वोपरि रखने वाले सच्चे राजनेता थे।
अधिवक्ता दिवस, जो भारत में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के सम्मान में मनाया जाता है, हमें यह स्मरण कराता है कि कानून केवल प्रक्रिया नहीं बल्कि नैतिकता, संवेदनशीलता और न्याय के प्रति प्रतिबद्धता का माध्यम है। डॉ. प्रसाद ने वकालत को पेशा नहीं, एक मूल्य के रूप में देखा, जहाँ सत्य, तर्क और नैतिक साहस सर्वोच्च हों। वर्तमान समय में यह दिन अधिवक्ताओं को यह सोचने का अवसर देता है कि वे न्याय को समाज के अंतिम व्यक्ति तक पहुँचाने में कितने समर्पित हैं।
आज जब समाज वैचारिक विभाजन, संवादहीनता और त्वरित न्याय की अपेक्षाओं से गुजर रहा है, तब डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की सीख और भी प्रासंगिक हो जाती है। वे बताते हैं कि राष्ट्रवाद समावेशी होना चाहिए, न्यायपालिका की गरिमा निष्पक्षता पर आधारित होती है और नेतृत्व का सबसे बड़ा गुण विनम्रता है।
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद केवल भारत के प्रथम राष्ट्रपति नहीं थे, वे इस राष्ट्रयात्रा के प्रथम मार्गदर्शक भी थे। उनकी जयंती एवं अधिवक्ता दिवस दोनों ही हमें यह प्रेरणा देते हैं कि सच्चा राष्ट्र-निर्माण कर्तव्य, अनुशासन और न्याय के प्रति आस्था से ही संभव है। ऐसे महामानव को विनम्र श्रद्धांजलि।
