भारत की सर्वोच्च न्यायपालिका पर धर्म के नाम पर हमला ने देश को झकझोर दिया है। सोमवार को सुप्रीम कोर्ट की कार्यवाही के दौरान 71 वर्षीय अधिवक्ता राकेश किशोर ने मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई पर जूता फेंकने का प्रयास किया। गिरफ्तारी के समय उन्होंने चिल्लाते हुए कहा, “सनातन का अपमान नहीं सहेंगे, हिंदुस्तान!”।
मुख्य न्यायाधीश गवई ने शांतिपूर्ण प्रतिक्रिया देते हुए कहा, “These things don’t affect me.” लेकिन सवाल यही है कि समाज में यह जहरीली मानसिकता कहाँ से आई, और कब यह तय होने लगा कि असहमति व्यक्त करने वाले पर हमला करना “धर्म रक्षा” कहलाने लगे।
विशेषज्ञों का कहना है कि धर्म के नाम पर फैली यह हिंसक विचारधारा अब अदालतों तक पहुँच चुकी है। ऐसे लोग केवल मुसलमानों, ईसाइयों, सिखों और बौद्धों के खिलाफ ही नहीं, बल्कि अपने ही समाज के कमजोर वर्गों के लिए भी खतरा हैं।
कांवड़ यात्राओं में तोड़फोड़, दूसरे धर्मों के पूजास्थलों में उपद्रव, दलितों और कमजोर तबकों पर अत्याचार—यह सब उस धर्म का चेहरा है जो संविधान और कानून की मर्यादाओं को नकार रहा है। गरीब मजदूरों के साथ दुर्व्यवहार भी इसी हिंसक मानसिकता का परिणाम है, जब अपराध और पाखंड को धर्म की ओट में वैधता मिलती है।
विश्लेषकों के अनुसार यह मानसिकता देश में विभाजन और हिंसा के बीज बो रही है। सुप्रीम कोर्ट में जूता फेंकने की घटना न केवल न्यायपालिका पर हमला है, बल्कि भारतीय गणराज्य की आत्मा पर हमला भी है।
समस्या किसी धर्म की नहीं, बल्कि उस मानसिकता की है जो धर्म को सत्ता और प्रभुत्व के औजार के रूप में प्रयोग करती है। ऐसे विचार किसी भी राष्ट्र के लिए आत्मघाती हैं। यह घटना स्पष्ट चेतावनी है कि अगर हमने इस उन्माद का प्रतिरोध नहीं किया, तो भविष्य में संविधान, न्याय और स्वतंत्रता को भी खतरा हो सकता है।
मुख्य न्यायाधीश पर जूता फेंकना किसी व्यक्तिगत कृत्य का परिणाम नहीं, बल्कि उस मानसिक अंधकार का प्रतीक है जिसमें सच्चाई, न्याय और विवेक को अपमान कहा जाने लगा है।
देश को बचाने के लिए सबसे पहले धर्म के नाम पर फैली हिंसा और पागलपन के खिलाफ आवाज उठानी होगी, क्योंकि अगर आज अदालत पर जूता फेंका गया, तो कल यह लोकतंत्र के चेहरे पर भी पड़ेगा।
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