✍️ डॉ. सतीश पाण्डेय
महराजगंज (राष्ट्र की परम्परा)। आज का समाज तेज परिवर्तनों के दौर से गुजर रहा है, जहाँ पारंपरिक भारतीय संस्कार और आधुनिक जीवनशैली के बीच संघर्ष तेजी से बढ़ रहा है। एक ओर सदियों पुरानी मान्यताएँ और जीवन-मूल्य हैं, तो दूसरी ओर आधुनिकता, स्वतंत्रता और तेज रफ्तार वाला जीवन। इन दो धाराओं के बीच आम परिवार, युवा और बुजुर्ग स्वयं को उलझा हुआ महसूस कर रहे हैं।
परंपराओं की पकड़ ढीली, आधुनिकता का बढ़ता विस्तार
घर-परिवार से लेकर सामाजिक संरचना तक बदलाव की लहर स्पष्ट दिख रही है। पहले जहाँ बुजुर्गों का मार्गदर्शन जीवन का आधार माना जाता था, आज निर्णय लेने में युवा पीढ़ी की स्वतंत्रता को प्राथमिकता दी जा रही है।
संयुक्त परिवार की परंपरा लगभग टूट चुकी है और युवाओं के लिए आत्मनिर्भरता, करियर और निजी आजादी सर्वोपरि बन गई है। वहीं बुजुर्ग सामाजिक मर्यादा और संस्कारों की रक्षा को अधिक महत्व देते हैं। यह विचार-भिन्नता परिवारों में तनाव का कारण बन रही है।
रिश्तों में घटती गर्माहट और संवाद की कमी
आधुनिक जीवनशैली की चकाचौंध में संवाद, मान-सम्मान और सहअस्तित्व जैसे मूल्य पीछे छूटते जा रहे हैं। तकनीक ने जीवन को आसान तो बनाया है, लेकिन रिश्तों में दूरियाँ बढ़ा दी हैं।
मोबाइल, इंटरनेट और सोशल मीडिया ने बातचीत, मेल-मुलाकात और परिवार के साथ समय बिताने की परंपरा को कमजोर कर दिया है।
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सांस्कृतिक टकराव से बढ़ रही नैतिक चुनौतियाँ
समाज में मूल्य-भ्रम, नैतिक कमजोरी और जिम्मेदारियों से दूरी जैसी चुनौतियाँ बढ़ रही हैं। परंपरा जहाँ अनुशासन और मर्यादा सिखाती है, वहीं आधुनिकता स्वतंत्रता और सोच की उड़ान देती है।
इन दोनों के बीच संतुलन न बन पाने से सामाजिक आचरण और व्यक्तिगत व्यवहार में गिरावट देखी जा रही है।
संतुलन ही है समाधान — विशेषज्ञों की राय
विशेषज्ञों का मानना है कि परंपरा और आधुनिकता दोनों आवश्यक हैं। समस्या टकराव की नहीं, बल्कि संतुलन की कमी है।
यदि युवा प्राचीन मूल्यों की जड़ें समझें और बुजुर्ग आधुनिक सोच को स्वीकार करें, तो समाज में सामंजस्य और स्थिरता दोनों संभव हैं।
संस्कार, विज्ञान और आधुनिक विचार—संतुलित रूप से अपनाए जाएँ तो यही आगे का मार्ग है।
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