- कृषि एवं प्राकृतिक विज्ञान संस्थान में बड़े पैमाने पर चल रहा जैविक खेती पर शोध
- रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का अधिक प्रयोग स्वास्थ्य और पर्यावरण को कर रहा प्रभावित
गोरखपुर (राष्ट्र की परम्परा)। दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय का कृषि संकाय मौजूदा समय में फसलों की गुणवत्ता एवं उत्पादन को लेकर गंभीर कार्य कर रहा है। संप्रति ऑर्गेनिक – इनॉर्गेनिक को लेकर समाज में सजकता एवं लोकवृत निर्मित होते हुए सहज ही देखा जा सकता है। फसलों के उत्पादन में रासायनिकों के अत्यधिक प्रयोग और बढ़ती हुई विविध बीमारियां संकट को गहरा रहा है। कैंसर जैसी बीमारी के ज्यादा बढ़ने के पीछे भी इन कारणों को देखा जा सकता है।
कैंसर और जैविक खेती से जुड़े विषय में हाल ही के विश्लेषणों में यह बात सामने आ रही है कि पंजाब और हरियाणा जैसे क्षेत्रों में रासायनिक खेती के कारण कैंसर के मामले बढ़े हैं। रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का अधिक उपयोग स्वास्थ्य और पर्यावरण को प्रभावित कर रहा है। उदाहरण के लिए पंजाब में कैंसर की बढ़ती दर के चलते कई किसानों ने जैविक खेती अपनाने की दिशा में कदम बढ़ाए हैं।
जैविक खेती में रासायनिक उत्पादों के बजाय प्राकृतिक खाद और जैविक कीटनाशकों का उपयोग किया जाता है, जो मिट्टी की उर्वरता बनाए रखने और स्वास्थ्य के लिए सुरक्षित मानी जाती है। इसके अलावा जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए सरकार भी जागरूकता अभियान चला रही है।
इसी क्रम में दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय के कृषि एवं प्राकृतिक विज्ञान संस्थान में बड़े पैमाने पर जैविक खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है। इसे जीरो बजट खेती भी कहा जाता है।
संस्थान के निदेशक प्रो. शरद कुमार मिश्र के अनुसार जीरो बजट प्राकृतिक खेती देशी गायों द्वारा उत्पादित गौ-उत्पादों (गोबर आदि) पर आधारित प्राकृतिक खेती है। इसमें सभी कृषि इनपुट किसान द्वारा अपने खेत पर ही तैयार किए जाते हैं। कोई भी इनपुट बाजार से नहीं खरीदा जाता है। इसलिए किसान को सीधे तौर पर कुछ भी खर्च नहीं करना पड़ता है। जिसके कारण इसे जीरो बजट आधारित खेती कहा जाता है।
जैविक खेती पर कार्य कर रहे मृदा विज्ञान विभाग के डॉ. अनुपम दुबे का प्राकृतिक खेती पर कहना है कि पंचगव्य के उपयोग से मिट्टी की सेहत को सुधारा जा सकता है। आजकल देश में किसान भाईयों द्वारा फसलों का उत्पादन बढ़ाने और अधिक लाभ प्राप्त करने के लिए अपने खेतों में रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाओं का इस्तेमाल बेतहाशा किया जा रहा है। हालात इतने खराब हो चुके हैं कि खेतों में बिना रासायनिक खाद डाले फसलों का उत्पादन करना संभव नहीं है।
फसलों में आवश्यकता से अधिक यूरिया, डीएपी जैसी रासायनिक खादों के इस्तेमाल ने भूमि की उर्वरा शक्ति को बहुत ही कम कर दिया है। इसका परिणाम यह है कि उत्पादन निरंतर घटता जा रहा है। इसके उलट प्राचीन काल में फसलों के उत्पादन में जैविक खाद का इस्तेमाल ज्यादा किया जाता था, जो मुख्यता गाय के गोबर और गोमूत्र पर आधारित था।
वर्त्तमान में कीट नियंत्रण के लिए कृत्रिम कीटनाशकों के अधिक प्रयोग से विभिन्न प्रकार के प्रदूषणों के साथ-साथ खाद्य पदार्थों में उनके अवशेष होने के कारण विभिन्न प्रकार की खतरनाक बीमारियां जैसे कैंसर, प्री मेच्योर डिलीवरी, अबॉर्शन आदि का खतरा बढ़ता जा रहा है। इसकी रोकथाम के लिए कीट विज्ञान विभाग के डॉक्टर सरोज एवं रितेश कुमार के निर्देशन में फसलों में जैविक कीटनाशकों, वानस्पतिक उत्पादों जैसे नीम तेल, काली मिर्च व अदरक के साथ-साथ विभिन्न प्रकार के ट्ट्रैप का उपयोग करके कीट नियंत्रण किया जा रहा है, जो कि पर्यावरण के साथ-साथ अन्य जीव जंतुओं के लिए भी सुरक्षित है।
इसके अलावा रबी मौसम में मृदा उर्वरता और पोषक तत्वों का प्रबंधन भी अनुसंधान का एक महत्वपूर्ण क्षेत्र है, जिसमें कृषि विज्ञान विभाग के डॉ. निखिल रघुवंशी और डॉ. मोनालिसा साहू के निर्देशन में शोध हो रहा है। कृषि वैज्ञानिक जैविक खादों और बायोफर्टिलाइज़र का उपयोग करके मृदा की गुणवत्ता में सुधार करने पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं। इसके साथ ही रासायनिक उर्वरकों के प्रभावी उपयोग पर भी शोध हो रहा है। इसके अलावा, गेहूं की फसल में अंतिम तापमान (terminal heat stress) के प्रभाव को कम करने के लिए ‘बीज प्राइमिंग’ का भी काम शस्य विभाग में करवाया जा रहा है
गोरखपुर विश्वविद्यालय की कुलपति प्रोफेसर पूनम टंडन का मानना है कि हमें अपने पोषण के प्रति सचेत होना जरूरी है। खाद्यान्न से संबंधित बीमारियां अलार्मिंग स्थिति का सूचक हैं। हमारा कृषि संकाय इस दिशा में अपने शोध के माध्यम से पूरी तत्परता एवं जागरूकता के साथ लगा हुआ है। जिससे न केवल किसानों बल्कि समाज को भी इस संदर्भ में ठोस व प्रामाणिक निराकरण प्रदान कर सके।
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