भारतीय संस्कृति में प्रत्येक व्रत और त्यौहार के पीछे कोई न कोई गूढ़ संदेश और जीवन-दर्शन छिपा होता है। कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मनाई जाने वाली अहोई अष्टमी का पर्व मातृत्व की करुणा, संतान के प्रति ममत्व और नारी के अटूट संयम का प्रतीक है। इस दिन माताएं अपनी संतान की दीर्घायु, सुख-संपन्नता और निरोग जीवन की कामना के लिए अहोई माता का व्रत रखती हैं।

लोक मान्यता है कि प्राचीन काल में एक स्त्री संतान के लिए मिट्टी खोदने गई थी, जहां अनजाने में उसने एक सिंहनी के शावक को घायल कर दिया। उस पाप के कारण उसके पुत्रों की अकाल मृत्यु होने लगी। व्यथित होकर जब उसने देवी अहोई की आराधना की, तब माता ने वरदान दिया कि यदि वह प्रत्येक वर्ष कार्तिक कृष्ण अष्टमी को अहोई व्रत रखेगी, तो उसकी संतान दीर्घायु होगी। तब से यह व्रत परंपरा के रूप में आज तक चला आ रहा है।
इस दिन महिलाएं दीवार पर अहोई माता का चित्र बनाती हैं, जिसमें सात पुत्रों और एक शावक का चित्रण किया जाता है। यह चित्र सात पीढ़ियों की समृद्धि और वंश की निरंतरता का प्रतीक माना जाता है।
व्रतधारिणी महिलाएं सूर्योदय से पहले स्नान कर व्रत का संकल्प लेती हैं और दिनभर निराहार रहती हैं। शाम को तारों के दर्शन के बाद अहोई माता की कथा सुनकर पूजा-अर्चना करती हैं। पूजा के उपरांत माताएं संतान के चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लेती हैं और व्रत का समापन करती हैं।
अहोई अष्टमी का यह व्रत केवल धार्मिक परंपरा नहीं, बल्कि मातृत्व की आत्मीयता और परिवार के प्रति त्याग की भावना का प्रतीक है।
आज जब जीवन की भागदौड़ में पारिवारिक रिश्ते और संवाद कमजोर पड़ रहे हैं, ऐसे में अहोई अष्टमी का पर्व हमें पुनः परिवार के मूल मूल्यों और भावनात्मक जुड़ाव की याद दिलाता है। यह पर्व बताता है कि मातृत्व केवल जन्म देने का नाम नहीं, बल्कि स्नेह, संयम और संस्कारों का वह दीप है जो संतानों के जीवन को आलोकित करता है।
अहोई अष्टमी का व्रत हमें यह संदेश देता है कि सच्चे प्रेम और निष्ठा से किए गए संकल्प कभी व्यर्थ नहीं जाते। यही मातृत्व का सार है, यही भारतीय संस्कृति की आत्मा है।
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