Tuesday, December 23, 2025
HomeUncategorizedकड़ाके की ठंड में बेसहारा जिंदगियों पर कहर, तंत्र की संवेदनाएं जमीं

कड़ाके की ठंड में बेसहारा जिंदगियों पर कहर, तंत्र की संवेदनाएं जमीं

महराजगंज (राष्ट्र की परम्परा)। जनपद में कड़ाके की ठंड एक बार फिर समाज के सबसे कमजोर तबके के लिए जानलेवा साबित हो रही है। सड़कों, फुटपाथों और बस स्टेशनों पर रात गुजारने को मजबूर बेसहारा लोग ठिठुरती ठंड से जूझ रहे हैं, लेकिन शासन-प्रशासन की संवेदनाएं जैसे शीतलहर से भी अधिक जम चुकी हैं। हालात ऐसे हैं कि हर साल सर्दी आती है, हर साल मौतों की खबरें सामने आती हैं और हर साल तंत्र पूरी तैयारी के दावों के साथ खुद को निर्दोष घोषित कर देता है।
सरकारी स्तर पर अलाव जलाने, रैन बसेरे संचालित करने और कंबल वितरण के आंकड़े जरूर पेश किए जाते हैं, लेकिन जमीनी हकीकत इन दावों की पोल खोल देती है। कई स्थानों पर अलाव सिर्फ कागजों में जलते नजर आते हैं, कंबल गोदामों में बंद पड़े रहते हैं और रैन बसेरे या तो बंद मिलते हैं या वहां बुनियादी सुविधाओं का घोर अभाव होता है। नतीजतन, जरूरतमंदों तक राहत पहुंचने से पहले ही ठंड अपना घातक असर दिखा देती है।
स्थानीय लोगों और सामाजिक संगठनों का कहना है कि रात के समय सड़कों पर सोने वाले वृद्ध, बीमार और निराश्रित लोगों की कोई सुध लेने वाला नहीं है। प्रशासनिक अमला दिन में निरीक्षण की औपचारिकता निभा लेता है, लेकिन रात में हालात और भी भयावह हो जाते हैं। ठंड से किसी की मौत होने के बाद जांच बैठती है, रिपोर्ट तैयार होती है और फिर मामला फाइलों में दफन हो जाता है। सवाल यह उठता है कि क्या ठंड से मरने वाला इंसान नागरिक नहीं है? क्या उसकी जान की कीमत सिर्फ एक औपचारिक रिपोर्ट तक सीमित रह गई है?
विशेषज्ञों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का मानना है कि इस समस्या का समाधान मुश्किल नहीं है। रात में सक्रिय निगरानी, मोबाइल रैन बसेरों की व्यवस्था, कंबलों का वास्तविक और समय पर वितरण, स्वयंसेवी संगठनों की भागीदारी और अधिकारियों की स्पष्ट जवाबदेही तय कर दी जाए, तो कई जिंदगियां बचाई जा सकती हैं। जरूरत सिर्फ इतनी है कि संवेदनाओं को कागजी आदेशों से आगे ले जाया जाए। अब भी वक्त है कि शासन-प्रशासन जागे और ठंड को गरीबों के लिए मौत का मौसम बनने से रोके। अन्यथा इतिहास यही लिखेगा कि इन जिंदगियों को ठंड ने नहीं, बल्कि संवेदनहीन तंत्र ने निगल लिया। हर सर्द सुबह के साथ यह सवाल और तीखा होता जा रहा है—आखिर शासन किसके लिए है?

RELATED ARTICLES
- Advertisment -

Most Popular

Recent Comments