हजारों दंपति,वर्षों तक अदालतों के चक्कर काटते रहते हैं,रिश्तों की भावनात्मक पीड़ा कानूनी तारीखों, वकीलों की फीस और सामाजिक दबावों में और गहरी हो जाती है- एडवोकेट किशन
गोंदिया – वैश्विक स्तरपर भारत में शादी भारतीय समाज में केवल दो व्यक्तियों का नहीं,बल्कि दो परिवारों, दो संस्कृतियों और दो जीवन-दृष्टियों का पवित्र मिलन मानी जाती रही है। इसे सात जन्मों का बंधन,संस्कार और धर्म से जोड़कर देखा गया है।इसी कारण तलाक शब्द आज भी भारतीय सामाजिक मानस में दुख,असफलता और विघटन का प्रतीक माना जाता है।परंतु मैं एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानीं गोंदिया महाराष्ट्र यह मानता हूं क़ि आधुनिक जीवन की जटिलताओं,बदलती सामाजिक संरचना और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की बढ़ती चेतना ने इस पवित्र संस्था की परिभाषा को चुनौती दी है। आज तलाक केवल व्यक्तिगत संबंधों का अंत नहीं,बल्कि एक लंबी, थकाने वाली और मानसिक रूप से पीड़ादायक कानूनी प्रक्रिया बन चुका है, विशेषकर तब जब मामला फैमिली कोर्ट के लंबे चक्रव्यूह में फँस जाता है।
साथियों बात अगर हम भारतीय फैमिली,सुप्रीम और हाई कोर्ट, जहाँ रिश्ते फाइलों में बदल जाते हैं इसको समझने की करें तो, भारत में फैमिली कोर्ट की स्थापना का उद्देश्य वैवाहिक विवादों का त्वरित,संवेदनशील और सुलह- आधारित समाधान था। लेकिन व्यावहारिक स्थिति यह है कि हजारों दंपति वर्षों तक अदालतों के चक्कर काटते रहते हैं। रिश्तों की भावनात्मक पीड़ा कानूनी तारीखों, वकीलों की फीस और सामाजिक दबावों में और गहरी हो जाती है। तलाक की प्रक्रिया कई बार उस पीड़ा को बढ़ा देती है, जिससे निकलने के लिए पक्ष अदालत पहुँचे होते हैं। ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या कानून वास्तव में टूट चुके रिश्तों को जोड़ने का माध्यम बन रहा है या केवल समय की औपचारिकता निभा रहा है।न्यायिक दृष्टिकोण में बदलाव-सुप्रीम कोर्ट से हाई कोर्ट तक पिछले कुछ वर्षों में भारतीय न्यायपालिका ने वैवाहिक विवादों को देखने के अपने दृष्टिकोण में एक उल्लेखनीय परिवर्तन किया है।सुप्रीम कोर्ट ने यह स्वीकार किया है कि हर विवाह को बचाया जाना न तो संभव है और न ही आवश्यक।यदि विवाह भावनात्मक मानसिक या सामाजिक रूप से पूरी तरह टूट चुका है, तो उसे कृत्रिम रूप से जीवित रखना दोनों पक्षों के साथ अन्याय हो सकता है।इसी क्रम में 17 दिसंबर को दिल्ली हाईकोर्ट का शिक्षा कुमारी बनाम संतोष कुमार निर्णय एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर बनकर उभरा है।दिल्ली हाई कोर्ट का ऐतिहासिक स्पष्टिकरण-दिल्ली हाई कोर्ट ने अपने फैसले में स्पष्ट किया कि हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत म्यूचुअल कंसेंट डिवोर्स के लिए एक वर्ष तक अलग रहने की शर्त अनिवार्य नहीं है, यदि दोनों पक्ष पूर्ण सहमति में हों। कोर्ट ने कहा कि यह शर्त कानून की आत्मा नहीं, बल्कि प्रक्रिया का एक हिस्सा है,जिसे उपयुक्त मामलों में वेव किया जा सकता है। यह निर्णय केवल एक कानूनी तकनीकी स्पष्टिकरण नहीं, बल्कि वैवाहिक स्वतंत्रता और व्यक्तिगत गरिमा की दिशा में एक बड़ा कदम है।
साथियों बात अगर हम फटाफट तलाक- राहत या जल्दबाजी ? इसको समझने की करें तो फटाफट तलाक शब्द सुनते ही समाज में मिश्रित प्रतिक्रियाएँ सामने आती हैं। कुछ इसे विवाह संस्था के पतन के रूप में देखते हैं, जबकि कुछ के लिए यह जीवन में नई शुरुआत का अवसर है। विशेष रूप से वे लोग जो टॉक्सिक,हिंसक या मानसिक रूप से दमनकारी रिश्तों में फँसे होते हैं, उनके लिए लंबे कानूनी इंतजार किसी अतिरिक्त सजा से कम नहीं होता। ऐसे मामलों में एक साल अलग रहने और फिर छह महीने के कूलिंग-ऑफ पीरियड की अनिवार्यता पीड़ितों के लिए राहत नहीं, बल्कि पीड़ा को लंबा करने का साधन बन जाती है।
साथियों बात अगर हम बच्चों के दृष्टिकोण से तलाक की प्रक्रिया को समझने की करें तो, जब दंपति के बीच विवाद में बच्चे शामिल होते हैं, तब मामला और भी संवेदनशील हो जाता है। लंबे समय तक चलने वाली कोर्ट- कचहरी बच्चों के मानसिक विकास पर गहरा प्रभाव डालती है। घरेलू तनाव, माता-पिता के बीच टकराव और अनिश्चित भविष्य बच्चों में असुरक्षा की भावना पैदा करता है। ऐसे में यदि आपसी सहमति से तलाक जल्दी और सम्मानजनक तरीके से हो जाए, तो बच्चों को उस संघर्ष से बचाया जा सकता है। इस दृष्टि से फटाफट तलाक कई परिवारों के लिए व्यावहारिक समाधान बनकर उभरता है।
साथियों बात अगर हम म्यूचुअल कंसेंट डिवोर्स,कानून क्या कहता है इसको समझने की करें तो, हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13B के अंतर्गत म्यूचुअल कंसेंट डिवोर्स का प्रावधान किया गया है। इसके तहत दोनों पति-पत्नी यदि यह मानते हैं कि वे साथ नहीं रह सकते, तो आपसी सहमति से तलाक ले सकते हैं। धारा 13B (2) में पहले एक वर्ष अलग- अलग रहने की शर्त और उसके बाद छह महीने का कूलिंग-ऑफ पीरियड निर्धारित किया गया है। इसका उद्देश्य यह था कि जल्दबाजी में लिया गया कोई फैसला भविष्य में पछतावे का कारण न बने और पक्षों को पुनर्विचार का अवसर मिले।कूलिंग-ऑफ पीरियड: उद्देश्य और वास्तविकता सिद्धांत रूप में कूलिंग-ऑफ पीरियड एक सकारात्मक अवधारणा है। यह माना गया कि समय मिलने पर पति- पत्नी अपने गुस्से, भावनात्मक उथल-पुथल से बाहर आकर सुलह कर सकते हैं। लेकिन व्यवहार में यह अवधि कई मामलों में केवल औपचारिकता बनकर रह गई। जिन दंपतियों ने वर्षों तक संघर्ष झेला होता है, उनके लिए छह महीने का अतिरिक्त इंतजार किसी समाधान की बजाय मानसिक बोझ बन जाता है। यही कारण है कि अदालतों ने इस अवधि की अनिवार्यता पर पुनर्विचार शुरू किया। सुप्रीम कोर्ट का 2017 का ऐतिहासिक फैसलाअमरदीप सिंह बनाम हरवीन कौर (2017) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि धारा 13B (2)का छह महीने का कूलिंग -ऑफ पीरियड मैंडेटरी नहीं, बल्कि डायरेक्टरी है। यदि अदालत को यह प्रतीत होता है कि विवाह पूरी तरह टूट चुका है, सुलह की कोई संभावना नहीं बची है और दोनों पक्ष सभी मुद्दों, जैसे गुजारा भत्ता, बच्चों की कस्टडी पर सहमत हैं, तो यह अवधि माफ की जा सकती है। यह निर्णय न्यायपालिका की मानवीय दृष्टि और व्यावहारिक समझ को दर्शाता है।
साथियों बात अगर हम अनुच्छेद 142 और न्यायिक विवेक इसको समझने की करें तो,सुप्रीम कोर्ट ने यहशक्ति अनुच्छेद 142 के तहत प्रयोग की, जो उसे पूर्ण न्याय करने का अधिकार देता है। इस अनुच्छेद के माध्यम से कोर्ट कानून की कठोरता से ऊपर उठकर न्याय की भावना को प्राथमिकता देता है। तलाक के मामलों में इसका प्रयोग यह दर्शाता है कि अदालतें अब विवाह को केवल एक कानूनी अनुबंध नहीं, बल्कि एक जीवंत मानवीय संबंध मानकर देख रही हैं, जिसकी मृत्यु को भी सम्मान और संवेदनशीलता के साथ स्वीकार किया जाना चाहिए।
साथियों बात अगर हम दिल्ली हाई कोर्ट का फैसला- सुप्रीम कोर्ट की सोच का विस्तार इसको समझने की करें तो, दिल्ली हाई कोर्ट का 17 दिसंबर का निर्णय सुप्रीम कोर्ट की इसी न्यायिक सोच का विस्तार है। हाई कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यदि दोनों पक्ष आपसी सहमति से तलाक चाहते हैं, तो एक वर्ष अलग रहने की शर्त को भी माफ किया जा सकता है। यह फैसला न केवल कानून की व्याख्या को स्पष्ट करता है, बल्कि फैमिली कोर्ट्स के लिए एक मार्गदर्शक सिद्धांत भी प्रस्तुत करता है।
साथियों बात कर हम इस संपूर्ण विषय को वैश्विक परिप्रेक्ष्यमें क़ि दुनियाँ तलाक को कैसे देखती है इसको समझने की करें तो, अंतरराष्ट्रीय स्तरपर देखें तो कई विकसित देशों में नो-फॉल्ट डिवोर्स की अवधारणा लागू है। अमेरिका,कनाडा,ऑस्ट्रेलिया और कई यूरोपीय देशों में यदि दोनों पक्ष सहमत हों,तो तलाक की प्रक्रिया अपेक्षाकृत सरल और त्वरित होती है। वहाँ अदालतें यह मानती हैं कि यदि दो वयस्क व्यक्ति साथ नहीं रहना चाहते, तो राज्य को उन्हें जबरन बाँधकर रखने का अधिकार नहीं है। भारत में हालिया न्यायिक रुझान इसी वैश्विक सोच के अनुरूप दिखाई देता है।संविधान व्यक्तिगत स्वतंत्रता और विवाह, भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार देता है। सुप्रीम कोर्ट ने समय-समय पर इसकी व्याख्या करते हुए इसमें गरिमा के साथ जीने काअधिकार जोड़ा है। यदि कोई विवाह व्यक्ति की गरिमा, मानसिक शांति और आत्मसम्मान को नष्ट कर रहा है, तो उससे बाहर निकलने का अधिकार भी इसी अनुच्छेद की आत्मा से जुड़ा हुआ है। म्यूचुअल डिवोर्स को सरल बनाना इसी संवैधानिक दृष्टिकोण का व्यावहारिक रूप है।क्या फटाफट तलाक से विवाह संस्था कमजोर होगी? यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। आलोचकों का तर्क है कि तलाक को आसान बनाने से लोग विवाह को हल्के में लेने लगेंगे। लेकिन इसके विपरीत तर्क यह है कि मजबूरी में निभाए जा रहे रिश्ते विवाह संस्था को मजबूत नहीं, बल्कि खोखला बनाते हैं। सम्मानपूर्वक अलग होने की सुविधा विवाह को डर का नहीं, बल्कि विकल्प का संबंध बनाती है।
अतः अगर हम उपरोक्त पूरे विवरण का अध्ययन कर इसका विश्लेषण करें तो हम पाएंगे क़ि मानवीय कानून की ओर बढ़ता भारत, दिल्ली हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के हालिया निर्णय यह संकेत देते हैं कि भारतीय न्यायपालिका अब वैवाहिक विवादों को केवल कानूनी तकनीक से नहीं,बल्कि मानवीय संवेदना और संवैधानिक मूल्यों के साथ देख रही है। फटाफट तलाक का अर्थ विवाह के प्रति उदासीनता नहीं, बल्कि टूट चुके रिश्तों को सम्मानजनक अंत देने की कोशिश है। यदि यह प्रवृत्ति संतुलन और विवेक के साथ आगे बढ़ती है,तो यह न केवल पीड़ितों के लिए राहत बनेगी, बल्कि न्याय प्रणाली की विश्वसनीयता को भी सुदृढ़ करेगी।
लेखक -किशन सनमुखदास भावनानी
क़र विशेषज्ञ स्तंभकार साहित्यकार अंतरराष्ट्रीय लेखक चिंतक कवि संगीत माध्यमा सीए(एटीसी)
