डॉ.सतीश पाण्डेय
महाराजगंज (राष्ट्र की परम्परा)। किसी भी समाज की प्रगति केवल ऊंची इमारतों, अत्याधुनिक तकनीक या डिग्रियों की संख्या से नहीं आंकी जा सकती। समाज की वास्तविक शक्ति उन संस्कारों में निहित होती है, जो व्यक्ति के चरित्र, सोच और व्यवहार को गढ़ते हैं। आज के प्रतिस्पर्धात्मक युग में जब शिक्षा का उद्देश्य नौकरी, पद और भौतिक सफलता तक सिमटता जा रहा है, तब यह सवाल और भी गंभीर हो जाता है कि क्या हम एक सशक्त, संवेदनशील और नैतिक समाज की ओर अग्रसर हैं।
संस्कार जीवन की वह पहली पाठशाला है, जहां व्यक्ति सत्य, ईमानदारी, करुणा, अनुशासन, सहिष्णुता और सामाजिक जिम्मेदारी जैसे मूल्यों से परिचित होता है। परिवार से शुरू होकर समाज और विद्यालय तक पहुंचने वाली यह सीख जब औपचारिक शिक्षा से जुड़ती है, तभी एक संतुलित और जिम्मेदार नागरिक का निर्माण संभव होता है। किंतु वर्तमान समय की विडंबना यह है कि शिक्षा और संस्कार के बीच की यह आवश्यक कड़ी धीरे-धीरे कमजोर होती जा रही है।डिग्रियों और अंकों की होड़ में नैतिकता,संवेदनशीलता और सामाजिक सरोकार पीछे छूटते जा रहे हैं। परिणामस्वरूप समाज में शिक्षित लोगों की संख्या तो बढ़ रही है, लेकिन मानवीय मूल्यों से युक्त नागरिकों का अभाव स्पष्ट दिखाई देता है। बढ़ते अपराध, भ्रष्टाचार, असहिष्णुता, पारिवारिक विघटन और सामाजिक तनाव इस गिरते नैतिक स्तर के प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। यह स्थिति इस ओर संकेत करती है कि हमारी शिक्षा प्रणाली में संस्कारों का समावेश अब केवल एक विचार नहीं, बल्कि समय की अनिवार्य आवश्यकता बन चुका है। शिक्षण संस्थानों की जिम्मेदारी केवल पाठ्यक्रम पूरा करने और परीक्षा परिणाम देने तक सीमित नहीं होनी चाहिए। विद्यालयों और महाविद्यालयों को विद्यार्थियों में जीवन मूल्यों, सामाजिक चेतना और राष्ट्र के प्रति उत्तरदायित्व की भावना विकसित करनी होगी। नैतिक शिक्षा, योग, खेल, सामाजिक सेवा और सांस्कृतिक गतिविधियों को शिक्षा का अभिन्न अंग बनाया जाना चाहिए, ताकि विद्यार्थी सर्वांगीण विकास की ओर बढ़ सकें। इसके साथ ही परिवार की भूमिका भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। बच्चों के पहले गुरु माता-पिता ही होते हैं, जिनके आचरण और व्यवहार से संस्कारों की नींव पड़ती है। यदि घर का वातावरण अनुशासन, प्रेम और नैतिकता से परिपूर्ण होगा, तो वही मूल्य बच्चों के व्यक्तित्व में भी परिलक्षित होंगे। जब परिवार, विद्यालय और समाज—तीनों मिलकर एक ही दिशा में प्रयास करते हैं, तभी एक सशक्त, समरस और प्रगतिशील समाज का निर्माण संभव होता है।
संस्कार से शिक्षा तक की यह यात्रा ही समाज को वास्तविक मजबूती प्रदान करती है। यही वह असली पाठशाला है, जहां केवल उज्ज्वल भविष्य ही नहीं, बल्कि सभ्यता और संस्कृति का भी निर्माण होता है।
