सुनीता कुमारी
बिहार
आन्या अपनी खिड़की के बाहर झांक रही थी। नीचे सड़क पर ट्रैफिक का शोर, हॉर्न, लोगों की भीड़, विज्ञापनों की चमक और ऊँची-ऊँची इमारतों के बीच वह कई सालों से रह तो रही थी, लेकिन जी नहीं पा रही थी।
कॉरपोरेट जॉब में लगातार काम, मोबाइल की लगातार रिंगटोन, मीटिंग्स, और भागदौड़—उसका मन धीरे-धीरे किसी शांत जगह को तलाशने लगा था।
एक शाम अचानक ही उसे लगा कि “बस… और नहीं।”
उसने छुट्टी ली, बैग पैक किया और बिना किसी प्लान के निकल पड़ी—शोरगुल से दूर कहीं।
बस धीरे-धीरे शहर से दूर निकल रही थी। ऊँची इमारतें छोटे-छोटे घरों में बदलने लगीं और फिर खेतों में।
कुछ घंटे बाद पहाड़ नज़र आए—हरे, शांत और स्वागत करते हुए।
हवा में ठंडक थी और एक तरह की सुकून देने वाली खुशबू, जैसे पेड़-पौधे फुसफुसा रहे हों कि “आ गई तुम?”
आन्या ने एक छोटे-से गाँव में उतरने का फैसला किया—नाम था खैरापानी।
गाँव में मोबाइल की नेटवर्क भी मुश्किल से आता था। और यही उसे चाहिए था—डिस्कनेक्ट होकर खुद से कनेक्ट होना।
गाँव छोटा था—बस कुछ मिट्टी के घर, कच्ची सड़क, और एक पुराना सा पुल।
आन्या को रहने के लिए एक होमस्टे मिला जिसने उसे अपनेपन से भरा।
घर का आँगन लकड़ी की महक से भरा, चूल्हे का धुआँ हवा में घुलता, और घर के बाहर खड़े देवदार के पेड़ पहरा देते से लगते थे।
यहाँ का समय धीमा था…
इतना धीमा कि उसकी सांसें भी लंबी और गहरी साँस ली
होमस्टे का मालिक राजन था—कम बोलने वाला, शांत स्वभाव का, पहाड़ जैसा स्थिर।
वह सुबह-सुबह उठकर मेहमानों के लिए चाय बनाता, फूल तोड़कर कमरे में रखता और शाम को गाँव के बच्चों को पढ़ाता।
एक शाम आग के पास बैठकर राजन ने पूछा,
“क्यों आई हो यहाँ?”
आन्या ने कुछ देर चुप रहने के बाद कहा,
“शोर से भागकर… पर अब लग रहा है कि शायद खुद से मिलने आई हूँ।”
राजन मुस्कुराया,
“पहाड़ हर किसी को पहले खुद से मिलवाते हैं, फिर दुनिया से।”
यह बात आन्या के मन में उतर गई।
अगली सुबह राजन उसे एक पगडंडी पर ले गया—घने जंगलों से होकर गुजरती, एकदम शांत।
बस पत्तों की सरसराहट, पंखों की फड़फड़ाहट और दूर कहीं बहती छोटी-सी धारा की आवाज।
चलते-चलते आन्या बोली,
“यकीन नहीं होता इतना सन्नाटा भी खूबसूरत हो सकता है।”
राजन ने कहा,
“सन्नाटा खाली नहीं होता, इसमें प्रकृति की सबसे धीमी आवाजें छिपी होती हैं।”
वह जगह आन्या के अंदर तक उतर रही थी।
शहर में उसने जितना खुद को खोया था, यहाँ उतना ही खुद को पाती जा रही थी।
पगडंडी के अंत में एक छोड़ा हुआ बगीचा था—जहाँ कभी किसी बूढ़े दंपत्ति ने सैकड़ों सेब के पेड़ लगाए थे।
अब वहाँ केवल दो-तीन पेड़ बचे थे, पर उनमें भी जादू था।
आन्या और राजन घंटों वहाँ बैठते—कभी बात करते, कभी चुप रहते।
कभी-कभी चुप्पी भी एक भाषा बन जाती है, अगर सामने वाला उसे समझ सके।
राजन ने एक दिन कहा,
“तुम्हें देखता हूँ तो लगता है कि तुम थकी नहीं, बस रुकी हुई हो।”
आन्या ने पहली बार महसूस किया कि किसी ने उसे सचमुच समझा है।
दिन गुजरते गए।
आन्या ने डायरी लिखना शुरू किया—अपने डर, टूटन, सपने, और वे बातें जिन्हें वह कभी किसी से कह नहीं पाई थी।
पहाड़ों पर बैठकर उसने महसूस किया कि हर इंसान को एक जगह चाहिए जहाँ वह बिना शोर के अपने मन की आवाज़ सुन सके।
राजन उसे समझाता,
“भागना समाधान नहीं, लेकिन ठहरना जरूर एक शुरुआत होती है।”
धीरे-धीरे आन्या बदलने लगी—सिर्फ बाहर से नहीं, अंदर से।
एक शाम सूरज पहाड़ों के पीछे डूब रहा था।
आन्या ने कहा,
“मैं वापस जाऊँगी… पर इस बार उसी शहर में अलग मन लेकर।”
राजन ने उसे चाय दी और कहा,
“पहाड़ तुम्हें कभी रोकेगा नहीं। तुम जब चाहो लौट सकती हो।”
उसके शब्दों में बिछड़ने का दर्द नहीं था, बस एक भरोसा था।
शहर वही था—वैसा ही शोर, वही भीड़, वही रफ्तार।
लेकिन वह बदल चुकी थी।
उसने अपने लिए सीमाएँ तय कीं।
काम और जीवन में संतुलन बनाया।
शोर में भी अपनी शांति बचाना सीखा।
और सबसे खास—वो अब हर सुबह कुछ मिनट बगीचे में बैठती, आँखें बंद करती और खैरापानी की पगडंडी याद करती जहाँ उसने खुद को पाया था।
कुछ महीनों बाद राजन की चिट्ठी आई:
“आन्या, यहाँ की पगडंडी तुम्हें याद करती है।
जब मन भारी होने लगे, लौट आना।
पहाड़ और मैं—दोनों यहीं हैं।”
चिट्ठी पढ़कर आन्या मुस्कुराई।
पहाड़ दूर थे, पर शांति अब उसके भीतर बस चुकी थी।
