
उत्तराखंड के लिए जिम कार्बेट किसी फरिश्ते से कम नहीं थे। 25 जुलाई, 1875 को नैनीताल के निकट कालाढूंगी में जन्मे एडवर्ड जेम्स कार्बेट, जिन्हें दुनिया जिम कार्बेट के नाम से जानती है, वह न केवल एक कुशल शिकारी थे, बल्कि एक संवेदनशील पर्यावरणप्रेमी और वन्यजीवों के सच्चे संरक्षक भी थे।
🔹 प्रारंभिक जीवन और शिक्षा जिम कार्बेट का जन्म ब्रिटिश परिवार में हुआ था। उनके पिता पोस्टमास्टर थे। बचपन से ही उन्हें जंगल, वन्यजीव और प्रकृति से बेहद लगाव था। उन्होंने प्रकृति को नज़दीक से जाना, पहाड़ों में रहकर वन्यजीवों के व्यवहार को समझा और उनके बीच रहकर जीवन जीना सीखा।
🔹 शिकारी से संरक्षक तक का सफर ब्रिटिश राज के दौरान जब उत्तराखंड (तब संयुक्त प्रांत) के ग्रामीण इलाकों में आदमखोर बाघ और तेंदुओं का आतंक था, तब जिम कार्बेट को उन्हें मारने के लिए बुलाया जाता था। उन्होंने 33 से अधिक आदमखोर बाघों और तेंदुओं को मारा था, जिनकी वजह से हजारों लोग मारे जा चुके थे।
सबसे कुख्यात शिकारों में से एक था “चंपावत टाइगर”, जिसने 436 लोगों की जान ली थी।
हालांकि एक शिकारी होने के बावजूद जिम कार्बेट का वन्यजीवों के प्रति गहरा सम्मान था। वह मानते थे कि बाघ और तेंदुए स्वाभाविक रूप से आदमखोर नहीं होते, बल्कि चोट, बुढ़ापे या किसी और वजह से ऐसा व्यवहार करते हैं।
🔹 वन्यजीव संरक्षण की दिशा में योगदान शिकार के अनुभव ने उन्हें वन्यजीव संरक्षण की ओर मोड़ दिया। उन्होंने शिकार छोड़कर जंगलों को बचाने का बीड़ा उठाया। उन्होंने भारत में राष्ट्रीय उद्यान की स्थापना की आवश्यकता को समझा और समर्थन किया।
1936 में भारत का पहला राष्ट्रीय उद्यान उत्तराखंड में बना, जिसे पहले हैली नेशनल पार्क कहा गया। 1957 में इसका नाम बदलकर उनके सम्मान में जिम कार्बेट नेशनल पार्क रखा गया।
🔹 लेखन कार्य और साहित्यिक योगदान जिम कार्बेट एक संवेदनशील लेखक भी थे। उन्होंने अपने अनुभवों को किताबों में पिरोया, जो आज भी विश्वभर में पढ़ी जाती हैं। उनकी प्रमुख पुस्तकों में शामिल हैं:
Man-Eaters of Kumaon,The Man-Eating Leopard of Rudraprayag,Jungle Lore,My India
इन किताबों के जरिए उन्होंने भारत, खासकर कुमाऊं क्षेत्र की संस्कृति, जनजीवन और वन्यजीवों के बारे में दुनिया को बताया।
🔹 भारत के प्रति प्रेम और अंतिम समय हालांकि वे ब्रिटिश नागरिक थे, लेकिन उन्होंने भारत को ही अपना घर माना। 1947 में भारत के स्वतंत्र होने के बाद वह केन्या चले गए, लेकिन वहां भी वह प्रकृति और वन्यजीवों से जुड़े रहे। 1955 में उनका निधन हो गया, लेकिन उनकी स्मृतियां आज भी कार्बेट नेशनल पार्क, उनकी किताबों और कुमाऊं के लोगों की यादों में जीवित हैं।
🟢 समापन विचार: जिम कार्बेट न केवल एक महान शिकारी थे, बल्कि वह वन्यजीवों के हितैषी, लेखक और पर्यावरणप्रेमी भी थे। उन्होंने जो काम किया, वह आज भी संरक्षण के क्षेत्र में एक मिसाल है। उनकी जयंती पर हम उन्हें श्रद्धापूर्वक नमन करते हैं और उनसे प्रेरणा लेते हैं कि प्रकृति और मानव के बीच संतुलन कैसे बनाया जाए।
“जो जंगल को बचाता है, वही असल में मानवता को बचाता है।” – जिम कार्बेट की विचारधारा आज भी प्रासंगिक है।
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