— कैलाश सिंह
महराजगंज (राष्ट्र की परम्परा)। आज का समाज एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है, जहां संकट केवल प्रशासनिक व्यवस्था का नहीं, बल्कि संस्कारों के क्षरण का भी है। परिवार से लेकर शासन-प्रशासन तक हर स्तर पर असंतुलन स्पष्ट दिखाई देता है। यह भटकाव अचानक नहीं आया, बल्कि वर्षों से उपेक्षित नैतिक मूल्यों और कमजोर होती सामाजिक चेतना का परिणाम है।
संस्कार: समाज की पहली पाठशाला
संस्कार किसी कानून, आदेश या पाठ्य-पुस्तक से नहीं आते, बल्कि घर के वातावरण में विकसित होते हैं। माता-पिता का आचरण, बड़ों के प्रति सम्मान, परिश्रम, अनुशासन और सत्यनिष्ठा—यही समाज की पहली पाठशाला है।
लेकिन भागदौड़ भरी जिंदगी में परिवारों के बीच संवाद कम हो रहा है। बच्चों को सुविधाएं तो मिल रही हैं, पर संस्कार देने की जिम्मेदारी पीछे छूटती जा रही है। इसका नतीजा आत्मकेंद्रित सोच के रूप में सामने आता है।
संस्कारहीनता का असर सिस्टम पर
जब वही व्यक्ति व्यवस्था का हिस्सा बनता है, तो संस्कारों की कमी सिस्टम में भी झलकने लगती है—
• दफ्तरों में संवेदनहीनता
• प्रशासन में भ्रष्टाचार
• राजनीति में अवसरवाद
• समाज में बढ़ती असहिष्णुता
जब कर्तव्यों से अधिक अधिकारों की बात होती है, तो व्यवस्था कमजोर पड़ती है और जनता का भरोसा टूटने लगता है।
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शिक्षा व्यवस्था भी संकट में
शिक्षा का उद्देश्य आज डिग्री और रोजगार तक सीमित होता जा रहा है। चरित्र निर्माण, नैतिकता और सामाजिक जिम्मेदारी हाशिये पर हैं। विद्यार्थी आगे बढ़ना चाहते हैं, लेकिन मूल्यों को बोझ समझने लगे हैं। यही सोच आगे चलकर समाज को दिशा देने के बजाय और उलझा देती है।
समाधान: संस्कार और सिस्टम के बीच सेतु
इस भटकाव को रोकने के लिए केवल कानून और नीतियां पर्याप्त नहीं हैं। जरूरी है—
• परिवार अपनी भूमिका को फिर से समझे
• शिक्षा को मूल्यपरक बनाया जाए
• व्यवस्था जवाबदेह हो
• समाज गलत के खिलाफ सक्रिय होकर खड़ा हो
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