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जल, जंगल और ज़मीन के प्रहरी थे वीर बिरसा मुंडा

जयंती विशेष | नवनीत मिश्र

देश की आज़ादी की लड़ाई का इतिहास सिर्फ राष्ट्रीय नेताओं और बड़े शहरों तक सीमित नहीं रहा, इसकी जड़ें उन दूरदराज़ आदिवासी इलाकों तक भी फैली थीं, जहाँ सदियों से प्रकृति के साथ संतुलन बनाकर जीवन जीने वाली समुदायों की पहचान और अस्तित्व पर औपनिवेशिक शासन लगातार प्रहार कर रहा था। इसी पृष्ठभूमि में 19वीं सदी के अंत में एक ऐसा तेजस्वी व्यक्तित्व उभरा जिसने आदिवासी समाज को नई चेतना, आत्मसम्मान और संघर्ष की राह दिखाई। यह नाम था—वीर बिरसा मुंडा। जल, जंगल और ज़मीन के हक़ की लड़ाई को स्वर देने वाले इस महान क्रांतिनायक की जयंती पूरे देश में गर्व और सम्मान के साथ मनाई जाती है।
15 नवंबर 1875 को उलिहाटू गांव में जन्मे बिरसा मुंडा का बचपन कठिन परिस्थितियों में बीता। अंग्रेजों द्वारा लगाए गए कठोर कर, जंगलों पर प्रतिबंध और जमींदारी प्रथा की कड़ाई से आदिवासी समाज अपनी ही मिट्टी पर पराया हो रहा था। बिरसा ने बहुत कम उम्र में यह समझ लिया कि शोषण और अन्याय के इस सिलसिले को रोकने के लिए समाज को संगठित होना होगा। यही सोच आगे चलकर उन्हें एक जननायक और संघर्ष के प्रतीक के रूप में स्थापित करती है।
1890 के दशक में बिरसा मुंडा के नेतृत्व में अंग्रेजी शासन और महाजनी शोषण के खिलाफ ‘उलगुलान’ यानी महाविद्रोह की शुरुआत हुई। यह आंदोलन केवल प्रशासन के लिए चुनौती नहीं था, बल्कि आदिवासी अस्मिता और अधिकारों की पहली बड़ी हुंकार था। बिरसा का नारा, “अबुआ दिसुम, अबुआ राज” यानी “हमारी धरती, हमारा राज” आंदोलन की आत्मा बन गया। इस संघर्ष ने अंग्रेजी शासन को हिलाकर रख दिया और उन्हें भूमि नीतियों में महत्वपूर्ण बदलाव करने पड़े। छोटानागपुर सहित कई इलाकों में आदिवासियों के भूमि अधिकारों को मान्यता मिली, जो बिरसा के आंदोलन की बड़ी सफलता थी।
बिरसा मुंडा केवल विद्रोह के नेता नहीं थे, बल्कि समाज सुधारक भी थे। उन्होंने आदिवासी समुदाय को नशाखोरी, सामाजिक कुरीतियों और आपसी मतभेदों से दूर रहने का संदेश दिया। सादगी, एकता और आत्मसम्मान पर आधारित उनके विचारों ने समाज में सकारात्मक परिवर्तन लाए। समुदाय में उनका प्रभाव इतना गहरा था कि लोग उन्हें ‘धरती आबा’ यानी ‘धरती पिता’ कहकर सम्मान देते थे।
9 जून 1900 को बिरसा मुंडा का रांची जेल में निधन हो गया, लेकिन मात्र 25 वर्षों के जीवन में उन्होंने जो इतिहास रचा, वह अमर हो गया। उनके संघर्ष ने भूमि संरक्षण से जुड़े कई कानूनों को जन्म दिया और आदिवासी समाज को एक मजबूत आधार प्रदान किया। आज भी उनकी विरासत देश भर में हाशिए पर रहने वाले समुदायों के अधिकारों की लड़ाई को नई ऊर्जा देती है।
पर्यावरण के बढ़ते संकट, जंगलों के तेजी से घटते क्षेत्र और प्राकृतिक संसाधनों पर बढ़ते दबाव के इस दौर में बिरसा मुंडा का संदेश और भी प्रासंगिक हो उठता है। उन्होंने बहुत पहले ही यह स्पष्ट कर दिया था कि जंगल और ज़मीन केवल जीविका का साधन नहीं, बल्कि संस्कृति, पहचान और भविष्य की नींव हैं।
वीर बिरसा मुंडा की जयंती हमें यह याद दिलाती है कि संघर्ष केवल हथियारों से नहीं, बल्कि साहस, सामूहिक चेतना और अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता से भी लड़ा जाता है। आज के दिन हम सभी यह संकल्प लें कि हम जल, जंगल और ज़मीन की रक्षा करेंगे तथा उन समुदायों की आवाज़ बनेंगे, जिनकी आवाज़ अक्सर अनसुनी रह जाती है।
धरती आबा बिरसा मुंडा अमर रहें।

rkpNavneet Mishra

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