“एक युग का अंत” भले ही एक घिसा-पिटा मुहावरा हो, लेकिन कई बार यह सबसे उपयुक्त मुहावरा होता है। 101 वर्ष की आयु में वी. एस. अच्युतानंदन का जाना एक ऐसा ही क्षण है।
वी.एस. ने लगभग आठ दशकों तक कम्युनिस्ट राजनीति को परिभाषित किया। वे उन 32 नेताओं में से अंतिम जीवित बचे नेता थे, जिन्होंने 1964 में अविभाजित सीपीआई की तूफानी राष्ट्रीय परिषद की बैठक से बाहर निकलकर सीपीएम का गठन किया था। लेकिन उनकी पहचान केवल इससे ही नहीं होती। भारत के स्वतंत्रता संग्राम से लेकर 1946 के पुन्नप्रा-वायलार विद्रोह, जिसने केरल के भारतीय संघ में शामिल होने का मार्ग प्रशस्त किया, 1964 में कम्युनिस्ट पार्टी का विभाजन, 1975 में आपातकाल के खिलाफ लड़ाई और 1991 में देश का योजनाबद्ध अर्थव्यवस्था से मुक्त बाजार की ओर बड़ा बदलाव तक – यह वह युग था, जिसने उन्हें परिभाषित किया। कॉमरेड वी.एस. मजदूरों और किसानों के आंदोलनों और भारतीय राजनीति की वह अंतिम जीवित कड़ी थे, जो इस विचार के वाहक थे कि जन संघर्ष सामाजिक परिवर्तन का माध्यम हो सकता है।
नई दिल्ली में जब मैं यह लिख रहा हूँ, आज बारिश हो रही है। लेकिन मैं तिरुवनंतपुरम से लाइव प्रसारित हो रहे दृश्यों पर ध्यान दिए बिना नहीं रह सकता : स्कूली बच्चे भी दिवंगत नेता की एक झलक पाने के लिए एकेजी सेंटर के आसपास उमड़ते देखे जा सकते हैं। मैं यह सोचने से खुद को नहीं रोक पा रहा हूँ कि जब वी.एस. ने लाल झंडा उठाया होगा, तब उनके दादा भी पैदा नहीं हुए होंगे, चाहे वे दर्जी का काम कर रहे हों या अपनी रोज़ी-रोटी कमाने के लिए नारियल के रेशे के कारखाने में गट्ठर उठा रहे हों। इसलिए, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि उन्होंने अपनी आत्मकथा का नाम “जीवन एक संघर्ष है” चुना। जैसे ही उनके निधन की खबर आई, केरल के मुख्यमंत्री पिनरायी विजयन से लेकर ज़मीनी कार्यकर्ता तक, श्रद्धांजलि देने वालों में एक बात समान थी : वी.एस. ने साबित कर दिया कि जीवन और संघर्ष दो अलग-अलग चीज़ें नहीं हैं।
वह कौन-सी बात है, जो आम जनता में कॉमरेड वी.एस. को प्रिय बनाती है? इसका संबंध उनके उस जुनून से है, जो उन्हें उस उद्देश्य के प्रति प्रतिबद्ध करता था, जिस पर वे विश्वास करते थे। राजनीति की निरंतर बदलती दुनिया में, वी.एस. ने दशकों तक पार्टी संगठन में रहना पसंद किया। जब 1957 में केरल में अविभाजित भाकपा सत्ता में आई थी, उस समय वे पार्टी की राज्य समिति के सदस्यों में से एक थे। वे 2006 में 82 वर्ष की आयु में पहली बार मंत्री बने — यानी मुख्यमंत्री। उनकी दुनिया में केवल दो स्तंभ थे — पार्टी और जनता।
मुख्यमंत्री के तौर पर, वी.एस. पर सबसे बड़ा आरोप यह था कि वे विपक्ष के नेता की तरह व्यवहार करते थे। यह तंज उनके द्वारा चलाए गए जनांदोलनों को लेकर था —जैसे कि मुन्नार जैसे पर्यटन स्थल पर शक्तिशाली निहित स्वार्थों द्वारा अतिक्रमण के खिलाफ या घातक कीटनाशक एंडोसल्फान पर प्रतिबंध लगाने की मांग को लेकर उनके द्वारा किया गया अनशन। उनके विरोधी यह समझने में नाकाम रहे — और जनता ने सहज रूप से यह समझ लिया — कि वे विपक्ष से नहीं, बल्कि व्यवस्था से लड़ रहे थे। यही वह दृढ़ विश्वास था, जिसने उन्हें मुक्त सॉफ्टवेयर आंदोलन का एक अप्रत्याशित समर्थक बना दिया।
भ्रष्टाचार, पर्यावरण और महिलाओं के खिलाफ हिंसा जैसे बुनियादी मुद्दों पर उनके अडिग रुख ने उनके कुछ विरोधी तो बनाए, लेकिन उनकी लोकप्रियता आसमान छू गई। मुख्यमंत्री रहते हुए, उन्होंने एक बार यौन उत्पीड़न के आरोपों से जूझ रहे मलयालम सिनेमा के एक तत्कालीन स्टार को पुरस्कार देने से इंकार कर दिया था। यह वी.एस. थे। असफलताओं ने उनका केवल हौसला बढ़ाया और वे दूसरे दिन फिर लड़ने के लिए जीवित रहे।
यह आज भी अकादमिक रुचि का विषय है कि कैसे वी.एस. जैसा पार्टी संगठन का एक अनुभवी व्यक्ति, 1990 के दशक में रातोंरात एक बेहद लोकप्रिय जननेता बन गया। मैंने देखा है कि वे भीड़ खींचने वाली सबसे बड़ी हस्ती थे। व्यंग्य से भरपूर उनके भाषणों ने हर तरह के लोगों को आकर्षित किया। उनके भाषणों की नकल करना — किसी शब्दांश पर ज़ोर देने या बीच में किसी चुटकुले पर विराम देने की शैली — स्कूल/कॉलेज के समारोहों, फिल्मों और टीवी शो में एक उपसंस्कृति बन गई।
अपने निजी जीवन में, वी.एस. ने वही अनुशासन अपनाया, जो उन्होंने पार्टी में लंबे समय तक राज्य सचिव रहते हुए अपनाया था। वी.एस. भोग-विलास में लिप्त नहीं थे। इस प्रकार, वे भारत के युवाओं के लिए एक और आदर्श छोड़ गए हैं : अनुशासन, साहस और प्रतिबद्धता ही जीवन है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि जब उनके मुख्यमंत्री बनने की योग्यता पर सवाल उठाए गए, तो उन्होंने युवाओं को एक नई परिभाषा दी। कॉमरेड वी.एस. ने एक कविता सुनाकर संशयवादियों को ध्वस्त कर दिया ।
आपकी उम्र आपके मुकुट की तरह धूसर या काली नहीं है/बल्कि उस आग की तरह है, जो आपकी आत्मा को जलाती है/और आपके पास ऐसा सिर है, जो अत्याचार के आगे कभी नहीं झुकता।
कुछ दिन पहले, मैं उस अस्पताल में था, जहाँ वे प्यारे कॉमरेड भर्ती थे। उनके बेटे वी. ए. अरुण ने कहा था : “वे एक योद्धा हैं, इसलिए मौत के लिए उन्हें हराना आसान नहीं होगा।
संजय पराते- छतीसगढ़
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