11 नवंबर को इतिहास में अमर हुए महान व्यक्तित्व
भारत का इतिहास उन विभूतियों की यादों से सजा है जिन्होंने अपने कर्म, विचार और योगदान से देश की आत्मा को आलोकित किया। 11 नवंबर का दिन ऐसे ही कुछ महान व्यक्तित्वों की स्मृति लेकर आता है जिन्होंने साहित्य, स्वतंत्रता संग्राम, कला और संस्कृति के क्षेत्र में अमिट छाप छोड़ी। आइए जानें उन विभूतियों को जिन्होंने इस दिन हमें सदा-सदा के लिए विदा कहा, पर उनके कार्य आज भी युगों तक प्रेरणा देते हैं।
कन्हैयालाल सेठिया (1919 – 2008): राजस्थान का कवि, जिसने रेगिस्तान को शब्द दिए
राजस्थान के चूरू जिले में जन्मे कन्हैयालाल सेठिया हिन्दी और राजस्थानी दोनों भाषाओं के प्रसिद्ध कवि, स्वतंत्रता सेनानी और समाजसेवी थे। बचपन से ही उनमें राष्ट्रभक्ति और लोकसंवेदना की गहरी जड़ें थीं। उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त की और स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भागीदारी निभाई। उनकी रचनाएँ जैसे ‘धरती धोरां री’ आज भी राजस्थान की आत्मा को स्वर देती हैं। राजस्थानी साहित्य को राष्ट्रीय पहचान दिलाने में उनका योगदान अतुलनीय रहा। उन्हें पद्मश्री और साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 11 नवंबर 2008 को उनका निधन हुआ, पर उनकी कविताएँ आज भी मरुस्थल की हवाओं में गूंजती हैं।
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कुप्पाली वेंकटप्पा पुटप्पा (1904 – 1994): कन्नड़ साहित्य का दीपस्तंभ
कर्नाटक के चिकमंगलूर जिले के कुप्पाली गाँव में जन्मे कुप्पाली वेंकटप्पा पुटप्पा (के. वी. पुट्टप्पा) जिन्हें लोग प्रेम से कुवेंपू कहते हैं, कन्नड़ भाषा के महान कवि, लेखक और विचारक थे। मैसूर विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्होंने अध्यापन और साहित्य सृजन दोनों को साधना बना लिया। उनका महाकाव्य “श्रीरामायण दर्शनम” कन्नड़ साहित्य की अमर कृति मानी जाती है। “विश्वमनव” की अवधारणा प्रस्तुत कर उन्होंने मानवता को नई दृष्टि दी। उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार और पद्मभूषण से सम्मानित किया गया। 11 नवंबर 1994 को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कहा, पर कन्नड़ संस्कृति में उनका नाम आज भी अमर है।
देवकी बोस (1898 – 1971): भारतीय सिनेमा के साउंड आर्टिस्ट और निर्देशक
बंगाल के श्रीरामपुर (हुगली, पश्चिम बंगाल) में जन्मे देवकी बोस भारतीय सिनेमा के उन अग्रदूतों में से थे जिन्होंने तकनीकी और कलात्मक दोनों दृष्टियों से फिल्म निर्माण को नया आयाम दिया। वे पहले निर्देशकों में से थे जिन्होंने फिल्मों में ध्वनि और संगीत के तालमेल को गहराई से जोड़ा। उनकी फिल्म “सीता” 1934 में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रशंसा पाई। वे बंगाल की सांस्कृतिक चेतना के वाहक थे और अपने समय के सबसे प्रयोगशील निर्देशकों में गिने जाते थे। 11 नवंबर 1971 को उन्होंने अंतिम सांस ली, पर उनका सिनेमा आज भी भारतीय फिल्म इतिहास का स्वर्ण अध्याय है।
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उमाकांत मालवीय (1919 – 1982): गीतों में संवेदना, कविताओं में जनमन
उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले में जन्मे उमाकांत मालवीय हिंदी साहित्य के प्रतिष्ठित कवि और गीतकार थे। उन्होंने अपनी कविताओं में समाज की व्यथा, राष्ट्रभक्ति और मानवीय मूल्यों को स्वर दिया। शिक्षा बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से प्राप्त की। उनकी रचनाओं में सादगी और गहराई का अद्भुत समन्वय देखने को मिलता है। वे न केवल एक कवि थे बल्कि जनजागरण के संवाहक भी थे। 11 नवंबर 1982 को उनका निधन हुआ, पर उनके गीत आज भी मंचों और कवि सम्मेलनों में जीवित हैं।
राम सिंह पठानिया (1824 – 1849): स्वतंत्रता की ज्वाला में जलता हुआ दीपक
हिमाचल प्रदेश के नूरपुर (कांगड़ा) जिले के रहने वाले वीर योद्धा राम सिंह पठानिया भारत के शुरुआती स्वतंत्रता सेनानियों में से एक थे। उन्होंने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ 1848 में शौर्यपूर्ण विद्रोह का नेतृत्व किया। सीमित संसाधनों के बावजूद उनकी बहादुरी ने अंग्रेजों की नींव हिला दी। दुर्भाग्यवश उन्हें 1849 में गिरफ्तार कर फांसी दे दी गई। वे भले ही मात्र 25 वर्ष की उम्र में वीरगति को प्राप्त हुए, पर उनका बलिदान आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा बना रहा। राम सिंह पठानिया का नाम हिमाचल के हर गांव में साहस और स्वाभिमान का प्रतीक है।
इन पांचों महान आत्माओं ने भले ही 11 नवंबर को इस संसार से विदा ली, पर उनके कार्य, विचार और प्रेरणाएँ आज भी भारतीय चेतना को आलोकित करती हैं। यह दिन हमें याद दिलाता है कि सच्चे कर्मवीर मरते नहीं — वे विचारों में अमर रहते हैं।
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