दिलीप कुमार अग्रवाल
‘श्राद्ध’ एवं ‘श्रद्धा’ दोनो शब्द प्रायः समरूप हैं। श्राद्धकर्म का एक सरल अर्थ है कि हम अपने पूर्वजों के महान कार्यों के प्रति श्रद्धाभाव का प्रदर्शन करें। ‘वार्षिक श्राद्ध’ का एक अर्थ यह भी है कि मानव जीवन की इस धरती पर निरंतरता के लिए अपने महान पूर्वजों के पदचिन्हों पर चलने का वर्ष में कम से कम एक बार तो शपथ लें। भारतीय संस्कृति की एक प्रमुख विशेषता है कि यह प्राकृतिक शक्तियों एवं उसके नियमों को इस प्रकार से आत्मसात करता है कि हर मनुष्य का जीवन सरलता से, निर्भीकता से, शांति एवं साहचर्य से, फिर निरोगी स्वरुप में भी संचालित किया जा सके। इसी विशेषता के कारण हमारे देश की सभ्यता को ‘सनातन सभ्यता’ कही जाती है, जिसका अर्थ है कि धर्म के प्रति हमारे चिंतन एवं विचारों का न तो कोई आदि है और न अंत | अर्थात हमारा मस्तिष्क स्वभाव से ही लचीला है। इसी लचीलेपन के कारण मोक्षभूमि गया (बिहार) नगर में संसार की समस्त सभ्यताओं का केंद्र बिंदु बनने की क्षमता है।
गया के पिंडदान में शामिल है- कौओं, कुतों, गायों, चीलों, पक्षियों, कीड़े, मकोड़े, बालू, नदी, पहाड़, वृक्ष, लता, पुष्प तथा जल आदि की पूजा, जिसमे उनके प्रति हम श्रद्धाभाव हीं तो दिखलातें हैं । श्रद्धा के बिना पूजा का कोई महत्व नहीं है। श्राद्धकर्म में श्रद्धाभाव हम अपने पूर्वजों का नाम ले लेकर दिखलातें हैं, जिसका आशय है कि- ” हे मेरे पूर्वज आराध्य । हम इस धरती पर आपका स्मरण कर आपके बताये मार्ग पर हीं चलते हुए सभी मनुष्य एवं प्रकृति के साथ सामंजस्य बिठाकर जीवन जी रहे हैं।”
इस व्याख्या में हमारा शान्ति एवं सहिष्णुतावादी (Pacifist & Tolerant) का होना प्रमाणित होता है। इस पिंडदान से प्रकृतिवादी (Naturalist) होने का भी हमें एक प्रमाणपत्र मिलता है। हमारे मोक्षभूमि गया का यह सन्देश है कि हम शतायु बनें, निरोगी काया हो हमारी तथा अपनी भावी पीढ़ियों के लिए हम एक स्वच्छ पर्यावरण का ट्रस्टी (न्यासी) बनें ।
‘प्रकृति’ का अर्थ महाभारत के शान्तिपर्व में भीष्म युधिष्ठिर संवाद के रूप में इस प्रकार से आया है- ” परमात्मा प्रकृति के स्वरुप में हीं हमारे परिगिर्द विद्यमान है। यदि हम भगवान को एक पुरुष के रूप में कल्पना करें तो आकाश इसका उदर है, सूर्य एवं चाँद दो आँखें हैं, धरती त्वचा एवं मांसपेशियाँ है, पर्वत अस्थि और समुद्र रक्त है। हवा सांस तो नदियाँ रक्त नलिकाएँ हैं, दिशायें हाँथ, अग्नि तेज तो आकाश का उपरी तल उसका शीश है । ‘धरती’ को सभी जीवों के लिए सार्वभौमिक माता (Universal Mother) बताया गया है। क्योंकि इसी धरती के कारण हमारा अस्तित्व आरंभ हुआ है। यह धरती, प्रकृति, सूरज, चाँद एवं वह सब कुछ जो चिरकाल से हमारे पर्यावरण का हिस्सा है, यही तो साक्षात् भगवान हैं, जिनके प्रति हमारे पितृगणों को प्रेम था। गयाश्राद्ध में हमारी यही प्रतिबद्धता दिखनी चाहिए कि प्रकृति एवं पर्यावरण से हमें भी प्रेम है, ठीक उसी तरह जैसे हमारे पूर्वजों को था ।
उपनिषदों में ‘ब्रह्मा’ के लिए ‘प्रकृति-पुरुष’ शब्द आया है, जिनकी उत्पत्ति जल से हुई है। भगवान विष्णु तो सदैव क्षीरसागर में ही रहते हैं। इसका आशय है कि हमारे पूर्वज यह जानते थे कि जीवों की उत्पत्ति का प्रथम कारण जल है, इसलिए वे प्राचीन काल से ही ‘जल- संरक्षण’ पर जोर देते थे। सिंधु घाटी कि सभ्यता में भी बड़े बड़े बांध, उससे उत्पन्न अधिशेष खाद्यान्न तथा बड़े अन्नागारों का अस्तित्व था। ‘जल संरक्षण’ की भावना अब कमजोर पड़ रही है, इसीलिए नदी, तालाब, आहर, पोखर, पईन यहाँ तक कि सागर भी आज ‘जल प्रदूषण’ से आक्रांत है। ‘जल जीवन हरियाली मिशन’ से यदि हमारा जुड़ाव होता है तब पितरों के श्राद्ध के साथ श्रद्धा संपृक्त हो जाएगी। यही पितृगणों की सच्ची पूजा होगी और यही होगा सच्चा गयाश्राद्ध।
महान दार्शनिक आदि शंकराचार्य ने ‘अद्वैत सिद्धान्त’ का प्रतिपादन किया था, जिसमें यह घोषणा है कि हम भी ब्रहम्, तुम भी ब्रहम्, यह सारा जगत हीं ब्रहम् है। इसके मूल अर्थ में मानव से एक वृक्ष पूछता है कि हे दुर्बुद्धि। जब हम और तुम दोनों ईश्वर रूपी एक ही शरीर के विभिन्न अंग हैं तो तुम हमें काटते क्यों हो? यही सवाल आज पशु पक्षीगण भी कर रहे हैं कि तुम्हारे मुंह का स्वाद क्या मांसाहार से ही पूरा होगा ? यदि हम शंकराचार्य के समक्ष शीश झुकाते है तब उनकी बात भी मानकर शाकाहार अपनानी चाहिए तभी तो श्राद्धकर्म के प्रति श्रद्धा पूरा होगा ।
पक्षियों का कलरव, आर्मी का मंजर, झरनों का प्रवाह, पहाड़ों का जीवन, पपीहे की आवाज, कोयल की कुक तथा प्रकृति की और भी विविध सुन्दरतायें बरबस हीं हमारा मन मोह लेती है। हम भाग्यशाली हैं कि हमारे धरती की सुन्दरता स्वर्ग से भी अच्छी है। सनातन संस्कृति का सन्देश है कि हम अपनी प्राकृतिक विविधता को अक्षुण्ण रखें, प्रदूषण मुक्त रखें तथा ऐसी टिकाऊ जीवन शैली अपनाएं कि हमारा घर परिवार बचे, यह संसार बचे, हमारा प्यार बचे तथा धरती पर जीने का अधिकार बचे। अब हमें सोचना होगा कि क्या धरती को नष्ट करूँगा मैं या धरती को बेहतर बनाऊंगा मैं? हे मेरे मित्र। हम धरती को आप बेहतर क्या बनायेंगे, धरती को सबसे पहले बचाए तो रखने की कृपा करें, जो हमारे पितृगणों का हमारे लिए सख्त संदेश है।
‘जल जीवन हरियाली का आंदोलन’ बिहार की भूमि से आरम्भ होकर पूरे देश में आज फैल गया है। वह बिहार जिसने भगवान बुद्ध को ज्ञान दिया तथा जहाँ विश्व का पहला गणतंत्र विकसित हुआ था, वहाँ पर हमने ‘जल’ अर्थात जल के श्रोतों की रक्षा करने का वचन लिया है, ‘जीवन’ अर्थात जीवन को शारीरिक एवं मानसिक रूप से स्वस्थ रखने का प्रण किया है तथा ‘हरियाली’ अर्थात अपने पर्यावरण को जी जान से संरक्षित करने हेतु अभियान चलाने का शपथ लिया है। तो आइये। अब हम अपने विवेक का परिचय दें, अपने प्रण की रक्षा करें तथा इस धरती से मानव जीवन का डोर टूटने न दें जो डोर मोक्षभूमि गया, बोधगया, बराबर, राजगीर, वैशाली, कुम्हरार तथा लहुआड़ सहित समस्त बिहार की धरती का कंठाहार भी है।
वनक्षेत्र सिकुड़ रहे हैं, हवा में विषैली गैसों की मात्रा बढ़ रही है, भूमिगत जल की मात्रा कम भी हो गई है और प्रदूषित भी, वायुमंडल गरम (Global Warming) हो रहा है, पारिस्थितिक तंत्र (Eco System) में विक्षोभ उत्पन्न हो रहा है, वर्षा असंतुलित हो गई है, भूमि की उर्वरता में औसतन कमी आई है, खाद्य श्रृंखला (Food Chain) में कीटनाशक तर्तों की पहुँच बढ़ गई है। ध्रुवीय हिमखंड (Polar Ice) पिघल रहे हैं, तटीय प्रदेशों के जलमग्न होने का खतरा बढ़ गया है, ओज़ोन परत में छिद्र बढ़ने से कैंसरकारक विकिरण धरती तक सीधे पहुँच रहे हैं। स्थानिक प्रजातियों (Endemic Species) के लोप होते जाने और जैव विविधता (Biodiversity) संकुचित होने से हमारी आवोहवा (Climate) प्रतिकूल होकर हॉट स्पॉट में तब्दील हो गई है। यह सब पूर्वजों के प्रति हमारे श्रद्धा के अनुरूप नहीं है।
जलीय जीवन संकट में है। हर साल लाखों करोड़ों लोग नए नए बिमारियों के शिकार हो रहे हैं। यह सब इसलिए हो रहा है कि आज की मानव जाति अपने स्वार्थ में अंधी हो चुकी है, जिसमें पर्यावरण के मानक खंड खंड हो रहे हैं। हमें आने वाले कल की चिंता करनी चाहिए तथा अपने पूर्वजों के कदमों से भटकना नहीं चाहिए। यदि हम इस धरती को मानव विहीन बनाने से बचाना चाहते हैं तो अभी भी चेतना जगानी होगी, पुराने आदर्शों पर चलना होगा ।
अतिवृष्टि, अनावृष्टि एवं बाढ़ की विभीषिका अब बहुत हद तक मानव निर्मित बनते जा रहे हैं। मानव विकास की अंधाधुंध दौड़ में हम यह समझने को तैयार हीं नहीं हैं कि हमारा यह विकास टिकाऊ या स्थायी (Sustainable) है या नहीं। ब्रिटिश हुकूमत के दिनों में तीन बार भारतीय वन अधिनियम (1865, 1878 एवं 1927) बनाए गए थे, जिसमे सभी का उद्देश्य था कि अंग्रेज रेल की पटरियों के स्लैब एवं अन्य जरूरतों के लिए वनों की कटाई तो करते रहे पर आदिवासियों या स्थानीय लोगों को उनके अधिकार से महरूम कर दिया जाय । आजादी के बाद भी ऐसे भेदभावपूर्ण एवं पर्यावरण विरोधी कई नियम कायम हैं। पर्यावरण वादियों ने ऐसे कानूनों को मरणासन्न बुद्धिमता (Dying Wisdom) कहते हुए पर्यावरण असंतुलन का इसे जनक भी बताया है। हमारे पूर्वज प्राकृतिक आपदाओं को प्रकृति का रोष बताते थे इसीलिए वे इन्द्र, अग्नि, वरुण, सूर्य, मरुत एवं अश्विनी आदि की आराधना करते थे ताकि पर्यावरण को कोई नुकसान न हो। पूर्वजों के नक्शे कदम पर चलते हुए हमे भी पर्यावरण की हर प्रकार से रक्षा करनी चाहिए।
वनस्पति एवं जीव जगत की हजारों प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी है, आगे लाखों विलुप्ति के कगार पर हैं, महामारियां सिर बाये खड़ी है, कोरोना तो एक भूमिका मात्र था तब हमें सोंचना होगा कि आखिर संकट ग्रस्त प्रजातियों का दोष क्या है? हमारी भावी पौदियों का दोष क्या है, जिसके लिए हम चिंतित नहीं हैं। जैव विविधता को बचाए बिना हम एक सभ्य मानव की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। धूल और धुआं को नियंत्रित करना ही होगा क्योंकि यही तो पिंडदानियों का प्रण है, गया का रण है, इसी में मानव जाति का शरण है तथा इसी से सिद्ध होगा कि पूर्वजों के प्रति हमारा समर्पण है।
( लेखक बिहार प्रशासनिक सेवा सेवानिवृत्त अधिकारी हैं)
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