पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय: दो भाषाओं के सेतु–शिल्पी, जन–मन के सहज कवि

भारतीय साहित्य के व्यापक विस्तार में पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय का नाम उन रचनाकारों में लिया जाता है, जिन्होंने अपनी काव्य–प्रतिभा को किसी एक भाषा तक सीमित नहीं रहने दिया। हिन्दी और उड़िया दोनों भाषाओं में समान दक्षता, समान सहजता और समान भाव–गौरव के साथ सृजन करना उनकी साहित्य–यात्रा की सबसे विशिष्ट पहचान है। वे उन विरले कवियों में हैं जिनकी लेखनी भाषा के बंधनों को तोड़कर सीधे संवेदना की भूमि पर उतरती है।
पाण्डेय जी का सृजन जीवन-यथार्थ के विविध अनुभवों से उपजा है। ग्रामीण परिवेश की मिट्टी, लोकगीतों की लय, संस्कृति से गहरा जुड़ाव और मनुष्य के दुख–सुख की जीवंत समझl इन सबने उनके काव्य को एक ऐसी धड़कन दी है, जो पढ़ते ही पाठक से आत्मीय संवाद बनाने लगती है। हिन्दी में उनकी रचनाएँ जहाँ भाषा की सहज सरसता का प्रमाण हैं, वहीं उड़िया में उनकी अभिव्यक्ति स्थानीय जीवन और संस्कृति के इतने करीब महसूस होती है कि लगता है जैसे यह भाषा उनके भीतर ही सांस लेती हो।
उनकी रचनाओं का मूल केंद्र ‘मनुष्य’ है, उसका संघर्ष, उसकी आशाएँ, उसका चिंतन और उसके भीतर की अन्त:प्रेरणाएँ। पाण्डेय जी की कविता विचार और भावना का ऐसा संतुलन प्रस्तुत करती है, जहाँ गहरी वैचारिक दृष्टि भी है और सहज मानवीय कोमलता भी। उनकी पंक्तियों में परंपरा की गरिमा और समय के बदलते तंतु दोनों साथ चलते हैं। यही द्वैत और समन्वय उनकी कविता की असली शक्ति है।
हिन्दी और उड़िया, दोनों भाषाओं में उनकी काव्य–साधना भारतीय भाषाई संस्कृति के उस गहरे सामंजस्य को रेखांकित करती है, जो हमारे देश की पहचान रहा है। वे इस तथ्य के जीवंत प्रमाण हैं कि भाषाएँ एक-दूसरे की प्रतिद्वंद्वी नहीं, बल्कि संवेदनाओं का विस्तार करती हुई सहयात्री हैं। पाण्डेय जी की रचनाओं को पढ़ते हुए यह स्पष्ट हो जाता है कि दो भाषाओं में लिखना सिर्फ कौशल नहीं, बल्कि दो सांस्कृतिक संसारों के साथ आत्मीय संबंध स्थापित करने की क्षमता है।
प्रकृति, सामाजिक बदलाव, मानवीय रिश्ते, लोक–संस्कृति और निजी स्मृतियाँl इन सभी विषयों के बीच उनकी कविता बड़ी सहजता से चलती है। उनकी रचनाओं में कहीं गाँव की पगडंडी की मिट्टी है, कहीं शहर की बेचैनी, कहीं स्मृतियों का सौम्य झरना और कहीं भविष्य के प्रति चेतावनी का स्वर। यही विविधता पाठक को उनकी रचनाओं से जोड़ती है।
पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय का महत्व मात्र इतना भर नहीं कि उन्होंने दो भाषाओं में लिखा, बल्कि यह कि उन्होंने दोनों भाषाओं में मौलिकता, गहराई और संवेदनशीलता के साथ लिखा। वे बताते हैं कि साहित्य की असली शक्ति उसके सार्वभौमिक मानवीय स्वर में है—ऐसा स्वर जिसे न भाषा बाँध सकती है, न भूगोल सीमित कर सकता है।
आज जब भारतीय भाषाओं की विविधता को संरक्षित रखने की आवश्यकता और अधिक महसूस की जा रही है, पाण्डेय जी का साहित्यिक योगदान एक प्रेरक उदाहरण है। वे दिखाते हैं कि भाषा केवल अभिव्यक्ति नहीं, बल्कि संस्कृति का सेतु है और वही सेतु भारतीय गौरव की असली पहचान है।
पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय की काव्य–यात्रा इसलिए महत्वपूर्ण है कि वह दो भाषाओं को जोड़ते हुए दो संवेदनात्मक संसारों को भी जोड़ती है। उनकी रचनाएँ आने वाली पीढ़ियों के लिए न सिर्फ साहित्यिक धरोहर हैं, बल्कि यह संदेश भी देती हैं कि सृजन का सौंदर्य तब सबसे अधिक खिलता है, जब वह मनुष्य की मूल मानवीयता को केंद्र में रखता है।
वे साहित्य के उस उजले परंपरा–स्तंभ की तरह हैं, जिनकी काव्य–प्रज्ञा हिन्दी और उड़िया—दोनों भाषाओं में बराबर प्रकाश फैलाती है। उनकी सृजनशीलता भारतीय साहित्य के बहुरंगी सौन्दर्य की एक अनमोल कड़ी है और आने वाले समय तक रहेगी।

rkpNavneet Mishra

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