मालेगाँव विस्फोट: न्याय का फैसला आया, लेकिन ‘भगवा आतंकवाद’ की बहस जारी है

त्वरित टिप्पणी-नवनीत मिश्र

        सन् 2008 में महाराष्ट्र के मालेगाँव में हुए बम धमाकों ने न केवल निर्दोष नागरिकों की जान ली, बल्कि देश की न्याय व्यवस्था, आतंकवाद की परिभाषा और राजनीतिक विमर्श को भी झकझोर कर रख दिया। 29 सितंबर को हुए इस बम विस्फोट में 6 लोग मारे गए और सौ से अधिक घायल हुए। अब, सत्रह वर्ष बाद, विशेष एनआईए अदालत ने सभी सात आरोपियों को साक्ष्य के अभाव में बरी कर दिया है। इनमें प्रमुख नाम हैं – पूर्व भाजपा सांसद साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर और लेफ्टिनेंट कर्नल प्रसाद श्रीकांत पुरोहित।
     यह फैसला जितना न्यायिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, उतना ही ‘भगवा आतंकवाद’ जैसे विवादास्पद विमर्श के लिए भी निर्णायक मोड़ कहा जा सकता है।
           मालेगाँव विस्फोट मामले में जब हिंदू पहचान वाले व्यक्तियों के नाम सामने आए, तब तत्कालीन राजनीतिक नेतृत्व और कुछ मीडिया वर्गों ने ‘भगवा आतंकवाद’ या ‘हिंदू आतंकवाद’ जैसे शब्दों का प्रयोग शुरू किया। यह पहली बार था जब भारत में आतंकवाद से जुड़ा विमर्श संप्रदाय आधारित हुआ।
           2008 से 2014 के बीच इस शब्दावली का राजनीतिक दुरुपयोग चरम पर था। इसे लेकर संसद से सड़क तक बहसें हुईं, राष्ट्रवादी संगठनों को कठघरे में खड़ा किया गया, और साध्वी प्रज्ञा जैसी आध्यात्मिक पृष्ठभूमि वाली महिला को आतंकवादी बताकर जेल में डाला गया।
           आज जब अदालत ने कहा है कि आरोपियों के खिलाफ कोई विश्वसनीय और वैधानिक साक्ष्य नहीं थे, तब यह पूछना लाजिमी है कि क्या "भगवा आतंकवाद" केवल एक राजनीतिक रचना थी, जिसे खास उद्देश्य से गढ़ा गया?
              फैसले के बाद साध्वी प्रज्ञा की पीड़ा उनके शब्दों में साफ झलकती है कि मैंने 17 वर्षों तक यातना सही। मुझे जेल में इतनी प्रताड़ना दी गई कि मेरा शरीर टूट गया। मेरी रीढ़ की हड्डी तोड़ दी गई, कैंसर हो गया। आज जब अदालत ने सच को पहचाना है, तो मैं माँ भारती के चरणों में प्रणाम करती हूँ। यह साजिश थी। इस देश के दुश्मनों ने मेरे खिलाफ षड्यंत्र किया, पर अंत में सत्य की जीत हुई है।
        उनका यह वक्तव्य केवल व्यक्तिगत अनुभव नहीं है, बल्कि उस सांस्कृतिक आघात का प्रमाण भी है जो 'भगवा वस्त्र' पहनने वालों को आतंक से जोड़ने की कोशिशों से उपजा।
         मालेगाँव विस्फोट मामले की जाँच पहले महाराष्ट्र एटीएस ने की, फिर एनआईए को सौंपी गई। कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा कि न तो पर्याप्त साक्ष्य थे और न ही यूएपीए के तहत अभियोजन की वैध स्वीकृति।
             अगर इतने वर्षों की जांच के बाद अदालत को सबूत नहीं मिलते, तो यह देश की जांच एजेंसियों की निष्पक्षता, पेशेवर दक्षता और राजनीतिक दबाव के सामने लाचारी को उजागर करता है। छह जानें गईं। सौ से अधिक लोग घायल हुए। अब जब आरोपी दोषमुक्त हो चुके हैं, तब असली सवाल यह है कि वास्तविक दोषी कौन थे? क्या उनका कभी पता चलेगा?
न्याय का अर्थ केवल अभियुक्त को दंड देना नहीं, बल्कि पीड़ित को सच्चाई बताना भी होता है। मालेगाँव विस्फोट कांड के बहाने 'भगवा आतंकवाद' जैसी अवधारणा को गढ़ा गयाl जिसने एक पूरे वर्ग, एक पूरे विश्वास और एक विचारधारा को अपराधी साबित करने का प्रयास किया। आज जब कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि मुकदमे लायक साक्ष्य तक मौजूद नहीं थे, तो अब ज़रूरत है उस राजनीतिक मंथन की जो यह स्वीकार करे कि आस्था को आतंक से जोड़ना भी एक प्रकार का मानसिक अपराध है।
अब समय आ गया है कि ‘आतंकवाद’ को किसी धर्म, वेशभूषा या पहचान से नहीं, बल्कि उसके कृत्य और इरादे से परिभाषित किया जाए। सत्रह साल बाद अदालत का निर्णय भले ही आया हो, लेकिन यह फैसला हमें बताता है कि न्याय केवल कानूनी प्रक्रिया नहीं, बल्कि सामाजिक विवेक की भी कसौटी है।
rkpNavneet Mishra

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