प्रकृति का नियम कितना कटु सत्य है,
जो दिखता है, सत्य से परे हो सकता है,
आँखे जो देखती हैं जल्दी मिट जाता है,
जो हृदय में बस जाये वह सच होता है।
क्योंकि जो हृदय में घर कर जाए
वह अपनी अमिट छाप छोड़ जाता है,
और हृदय के रास्ते मन व मस्तिष्क
से सदा आँखों को वही दिखलाता है।
मन माने की बात यही है कि सर्पराज
दाख छुहारा जैसे अमृतफल छोड़कर
ज़हरीले फल खाना पसंद करता है,
चकोर कर्पूर नही अंगार ही खाता है।
भँवरे काठ विदीर्ण कर अपना घर बनाते हैं,
पर स्वयं कमलदल में बंद होकर रहते हैं,
पतंगे दीपक को प्राणपण से चाहते तो हैं,
पर उसपर अपने प्राण निछावर कर देते है।
जिसको जो भी अच्छा लगता है,
वह उसी को ही पाना चाहता है,
प्रेम का रोग ही ऐसा होता है, रूप
कुरूप नज़र से नहीं दिख पाता है।
जो भी अच्छा या बुरा होता है उसके
प्रति हृदय निष्कपट होना चाहिये,
वापस पाने की आशा कम रखकर
जीवन से निराश नहीं होना चाहिए।
इंसान के मन में एक समय ऐसा आता है,
जब उसे हृदय से एहसास हो जाता है,
आदित्य जीवन में अपने तो बहुत होते हैं,
ईश्वर को छोड़ कोई साथ नहीं दे पाता है।
•कर्नल आदि शंकर मिश्र ‘आदित्य’
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