August 6, 2025

राष्ट्र की परम्परा

हिन्दी दैनिक-मुद्द्दे जनहित के

नियति का खेल

बलिया(राष्ट्र की परम्परा)

सूख गई नदी लहरों का पता नहीं।
जीव जंतु बेहाल है पानी का पता नहीं।।
टूटी हुई है नाव नाविक का पता नहीं।
मृत पड़ी है मछलियां मछुआरों का पता नहीं।।
समय का चक्र बदलता ही जाए।
नियति का खेल चलता ही जाए।।
कभी सुखद और कभी दुखद पल।
प्रकृति का नियम अनवरत चलता जाए।।
हे नदी तुम पर भी समय की मार है।
शांत है लहरें तेरी और टूटी पतवार है।।
कभी तू भी इठलाती थी अपने यौवन पर।
आज तू भी फंस गई जैसे बीच मझधार है।।
अतीत की स्मृतियां भुला नहीं पाती हूं मैं।
बंजर धारा की दुर्दशा देख नहीं पाती हूं मैं।।
क्या दोष है मेरा समझ नहीं पाती हूं मैं।
यह वक्त किसी का नहीं यह सोच अश्रु बहाती हूं मैं।।
सन्नाटा छाया है आता ना अब कोई पास।
पर पुनर्जीवित होने की छोड़ी नहीं मैंने आस।।
आएगा वापस फिर से समय दोबारा।
वक्त बदलेगा जरूर मुझको है पूरा विश्वास। सीमा त्रिपाठी