✍️नवनीत मिश्र
गोस्वामी तुलसीदास जी राम भक्ति शाखा के सर्वोच्च कवि है। उन्होंने भगवान राम को अपना इष्टदेव माना है। तुलसी दास भक्ति मार्ग वेदशास्त्र पर आधारित है। कवि के रूप में उन्होंने अपने साहित्य में श्रवण, कीर्तन, स्मरण, अर्चन और आत्मनिवेदन सभी पक्षों का प्रतिपादन बड़े ही कुशलतापूर्वक किया है। वस्तुतः तुलसीदास जी एक उच्चकोटि के कवि और भक्त थे तथा उनका हृदय भक्ति के पवित्रतम भावों से परिपूर्ण था। वे श्री राम के अनन्य भक्त है। उन्हें केवल राम पर ही विश्वास है। उन्होंने चातक को अपनी भक्ति का परम आदर्श माना है। तुलसीदास जी का विचार है कि वाक्य ज्ञान की अपेक्षा तत्व ज्ञान से भक्ति की प्राप्ति संभव है। चातक की निष्कामता द्वारा उन्होंने अपने भक्ति-रूप को व्यक्त किया है-
‘जन कहाय नाम लेत हाँ, किये पन चातक ज्यों प्यास प्रेम पन कीl’
तुलसी की भक्ति दास्य-भाव की है। उन्होंने स्वयं को 'श्रीराम' का दास माना है। उन्होंने श्रीराम के समक्ष स्वयं को दीन, लघु, अधम, विनम्र और महापतित माना है।
भक्ति के प्रकार-
हृदय का पवित्रतम भाव है भक्ति । यह भक्तिभाव सर्वप्रथम श्रद्धा के रूप अंकुरित होता है और श्रद्धा तीन प्रकार की होती है- सात्विकी, राजसी और तामसी। श्रद्धा के इन तीन रूपों के आधार पर पर भक्ति की भी तीन कोटियाँ होती है-(1) सात्विको भक्ति (2)राजसी भक्ति (3) तामसी भक्ति
अपनी रचनाओ विनय पत्रिका और रामचरित मानस में तीनों की तुलसीदास जी ने भक्ति-रूपों को विशद चर्चा की है। रावण राजसी और तामसी भक्ति का उपासक थाl जबकि गोस्वामी तुलसीदास जी को सात्विकी भक्ति प्रिय थी। सात्विकी भक्ति मिल जाये, यही उनकी कामना है –
“चहाँ न सुर्गात सुमित सम्पति, कछु ऋद्धि सिद्धि विपुल वl
हेतु रहित अनुराम राम-पद, अनुदित बढ़े अधिकाईll’
नवधा भक्ति का निरूपण तुलसीदास जी ने रामचरित मानस और विनय पत्रिका दोनों ही ग्रंथों में किया है।
रामचरित मानस के शबरी-प्रसंग से नवधा भक्ति का निरूपण इस प्रकार सें है-
‘प्रथम भगति संतन कर संगा, दूसरि रतिमय कथा प्रसंगा’
गोस्वामी तुलसीदास जी श्रीराम के अनन्य- आराधक हैं। परंतु कही भी उन्होंने किसी अन्य देवी देवता की निन्दा, नहीं की है। किन्तु राम को हो सर्वोपरि मानकर उन्हीं के चरणों में श्रद्धा-सुमन अर्पित किये है।
गोस्वामी जी की भक्ति की प्रमुख विशेषताओं की विवेचना निम्नानुसार को जा सकती है-
1. सेवक सेव्य भाव की भक्ति-
उनके इष्टदेव मर्यादा पुरुषोत्तम राम है। उन्होंने अपने आराध्य के प्रति भक्ति-भावना के प्रसून अर्पित करते समय उन्हें अपना स्वामी और स्वयं को सेवक माना है। उनका विश्वास है कि बिना इसके संसार के भव सागर से उद्धार नहीं हो सकता है। इसलिए उनका मत है कि- ‘सेवक-सेव्य-भाव बिन भव न तरिय उखारि।” अतः स्पष्ट है कि तुलसी की भक्ति सेवक-सेव्य भाव की अर्थात् दास्य-भाव की है।
भक्ति की अन्यता –
तुलसी राम जी के अनन्य भक्त हैं। तुलसी की भक्ति में श्रद्धा तथा विश्वास का उद्भुत समन्वय है- ‘राम सों बड़ों हैं कौन, मोंसौं कौन छोटो l
राम सों खरो है कौन, मोंसौं कौन खोटो।।”
सत्संग की महत्ता का प्रतिपादन –
तुलसी दास ने भक्ति प्राप्ति के लिए सत्संग को सर्वश्रेष्ठ बताया है। इसके अतिरिक्त ज्ञान और वैराग्य को भी भक्ति का साधन बताया है। तुलसी ने तप, संयम, श्रद्धा, विश्वास, प्रेम, ईश्वर कृपा, प्रभु की शरणागति को भी भक्ति का प्रमुख साधन सिद्ध किया है।
तुलसी के इष्टदेव का स्वरूप-
तुलसी ने अपने इष्टदेव के स्वरूप का वर्णन करते हुए उन्हें निर्गुण एवं सगुण, निराकार एवं साकार दोनों स्वरूपों से स्वीकार किया है। तुलसी ने रामजी को “विश्वरूप रघुवंश मनि।” कहकर विराट रूपधारी बताया है। राम जी के अनन्त गुण हैं–
”नट इवा कपट चरित करि नाना । सादा स्वतन्त्र राम भगवान ॥”
आराध्य के चरणों में सम्पूर्ण समर्पण-
कभी भक्त जब दुष्कृत्यों से भरे अपने विगत जीवन पर दृष्टिपात करता है तो अनुताप से भर जाता है। उसका यह अनुताप विनय पत्रिका की इन पंक्तियों में दृष्टव्य है-
‘जनम गयो बार्दाहं वर बीति ।
परमारथ पाले न परयो कछु अनुदिन अधिक अनीतिll”
गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपने को सर्वस्वरूपेण इष्टदेव श्रीराम के चरणों में अर्पित कर दिया है। भक्त का विश्वास है कि इष्टदेव मुझे चाहे जिस रूप में अपनावे मेरा तो सर्वभावेन हित ही है-
‘ब्रह्म तू हाँ जीव, तू ठाकुर हाँ चेरोl
तात मात गुरू सखा तू सब विधि हितू मेरो ।।’
भक्ति के सरल एवं व्यावहारिक रूप का प्रतिपादन-
गोस्वामी जी ने भक्ति को सरल और व्यावहारिक रूप में अपने काव्य में प्रस्तुत किया है। ‘केशव कहि न जाये का कहिये” वाले पद में कवि में दार्शनिक मतों के सम्बन्ध में जिज्ञासा प्रकट की हैl अन्त में सभी मतों को मन को भ्रमित करने वाला निरूपित किया गया है-
‘तुलसीदास परिहरै तीनि भ्रम, सो आपन पहिचाने।
तुलसीदास प्रभु यहि पथ रहि अविचल हरि-भक्ति लालांगोll’
निष्काम भावना-
सच्ची भक्ति की प्रमुख विशेषता है – निष्कामता। निष्काम भाव से जो भक्ति की जाती है, वही सर्वश्रेष्ठ है। तुलसी की भक्ति इसी प्रकार की थी। वह राम को इसीलिए भजते थे कि राम उन्हें अति प्रिय है। उनकी भक्ति का कारण भी यही है-
‘जो जगदीश तो अति भलौ, जो महीस तां भागl
तुलसी चाहत जनम मरि, रामचरण अनुरागll’
निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि गोस्वामी तुलसी दास का भक्ति पद्धति में विनय, प्रेम, आशक्ति की प्रबलता होकर भी दैन्य का आधिक्य हैl ईश्वर की कृपा को तुलसी ने सर्वोपरि माना हैl तुलसी की भक्ति सात्विक भक्ति है। उनकी की इस भक्ति में यश, ख्याति, ऐश्वर्य प्राप्ति की आकांक्षा नहीं हैl इस प्रकार कहा जा सकता है कि गोस्वामी तुलसी दास जी भक्तिकाल की रामभक्ति शाखा के सर्वोच्च कवि है।
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