दत्तोपंत ठेंगड़ी : राष्ट्रनिष्ठ विचार और संगठन शक्ति के युगपुरुष

भारत के राष्ट्रीय जीवन में कुछ व्यक्तित्व ऐसे होते हैं जिनका कार्य और चिंतन समय की सीमाओं को लांघकर आने वाली पीढ़ियों के लिए मार्गदर्शक बन जाता है। ऐसे ही विलक्षण व्यक्तित्व थे श्रद्धेय दत्तोपंत ठेंगड़ी जी, जिनके जीवन का हर क्षण राष्ट्र के पुनर्निर्माण, श्रम के सम्मान और स्वदेशी चिंतन के विस्तार को समर्पित था। वे संगठन, साधना और स्वाभिमान के अद्वितीय प्रतीक थे।
दत्तोपंत ठेंगड़ी जी का जन्म 10 नवम्बर 1920 को महाराष्ट्र के वार्धा जिले में हुआ था। प्रारम्भिक शिक्षा के बाद उन्होंने कानून की पढ़ाई की, परंतु उनका झुकाव राजनीति और समाजसेवा की ओर था। विद्यार्थी जीवन में ही वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े और जीवनपर्यंत संघ के आदर्शों को जीते रहे। उनके भीतर गहरी राष्ट्रभक्ति, संगठन कौशल और समाज के हर वर्ग को जोड़ने की क्षमता थी।
देश के स्वतंत्र होने के बाद ठेंगड़ी जी ने अनुभव किया कि राजनीतिक स्वतंत्रता तब तक सार्थक नहीं जब तक आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्वावलंबन स्थापित न हो। इसी विचार से उन्होंने क्रमशः भारतीय मजदूर संघ (BMS), भारतीय किसान संघ (BKS) और स्वदेशी जागरण मंच (SJM) जैसे संगठनों की स्थापना की। यह तीनों संगठन आज भी उनके विचारों के अनुरूप राष्ट्र के श्रमिक, कृषक और उद्यमी वर्ग को संगठित कर रहे हैं।
भारतीय मजदूर संघ की स्थापना 23 जुलाई 1955 को की गई। उनका उद्देश्य था कि श्रमिक वर्ग केवल अपने अधिकारों के लिए नहीं, बल्कि राष्ट्र के विकास के लिए भी योगदान दे। उनका नारा थाl “देश का हित ही श्रमिक का हित है।” उन्होंने श्रम को पूजा और श्रमिक को राष्ट्रनिर्माता की संज्ञा दी।
इसके बाद उन्होंने भारतीय किसान संघ की स्थापना की, ताकि किसान केवल उत्पादनकर्ता न रहे, बल्कि नीति-निर्माण में अपनी भूमिका निभा सके। उनका स्पष्ट मत था कि कृषि केवल अर्थव्यवस्था का नहीं, बल्कि संस्कृति और आत्मनिर्भरता का आधार है। उन्होंने किसानों में आत्मविश्वास और संगठित शक्ति का संचार किया।
स्वदेशी जागरण मंच के माध्यम से उन्होंने आर्थिक क्षेत्र में स्वदेशी और आत्मनिर्भर भारत का विचार पुनर्जीवित किया। उनका मानना था कि भारत का विकास पश्चिमी पूंजीवाद की नकल से नहीं, बल्कि अपने सांस्कृतिक मूल्यों और स्थानीय संसाधनों पर आधारित अर्थनीति से संभव है। यह विचार आज ‘आत्मनिर्भर भारत’ के रूप में राष्ट्रीय नीति का आधार बन चुका है।
दत्तोपंत ठेंगड़ी न केवल एक संगठनकर्ता थे, बल्कि एक गहन चिंतक और लेखक भी थे। उनके लेखों और भाषणों में भारतीय अर्थनीति, ग्राम स्वराज, श्रम-संस्कृति और राष्ट्रवाद की गहरी समझ झलकती है। वे कहते थेl “विकास का अर्थ केवल धन की वृद्धि नहीं, बल्कि व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की आत्मा का उत्थान है।”
उनका जीवन पूर्णतः अनुशासित, सादगीपूर्ण और देश के प्रति समर्पित था। सत्ता, पद और प्रसिद्धि से वे सदा दूर रहे। 14 अक्टूबर 2004 को इस महान तपस्वी का देहांत हुआ, परंतु उनकी विचारधारा आज भी देश की आर्थिक और सामाजिक चेतना को दिशा दे रही है।
दत्तोपंत ठेंगड़ी जी की पुण्यतिथि पर हम उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए यही संकल्प लें कि,

“हम स्वदेशी, श्रम और स्वावलंबन के पथ पर चलकर भारत को वैभवशाली, आत्मनिर्भर और नैतिक रूप से समृद्ध राष्ट्र बनाएं।”

rkpNavneet Mishra

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