अलाव कागज़ों में, गरीब सड़कों पर — ठिठुरती ज़िंदगी ने खड़े किए बड़े सवाल

महराजगंज में ठंड से बचाव की व्यवस्था फेल, अलाव-रैन बसेरे केवल दावों तक सीमित

महराजगंज (राष्ट्र की परम्परा)। जनपद में कड़ाके की ठंड ने जनजीवन को बुरी तरह प्रभावित कर दिया है, लेकिन ठंड से बचाव को लेकर शासन-प्रशासन की तैयारियां पूरी तरह नाकाम नजर आ रही हैं। हालात यह हैं कि ठंड से ज्यादा व्यवस्था की संवेदनहीनता गरीबों, बेसहारा और जरूरतमंद लोगों के लिए जानलेवा बनती जा रही है। सड़कों, बस स्टैंडों, बाजारों और सार्वजनिक स्थलों पर रात होते ही इंसान नहीं, बल्कि सिस्टम की विफलता ठिठुरती दिखाई देती है।

सरकारी दावों के अनुसार जिले में अलाव जलाए जा रहे हैं, रैन बसेरे संचालित हैं और कंबल वितरण किया जा रहा है, लेकिन जमीनी हकीकत इससे बिल्कुल उलट है। अधिकांश चौराहों और बस स्टैंडों पर अलाव की कोई व्यवस्था नहीं है, और जहां अलाव जल भी रहा है वहां लकड़ी इतनी कम होती है कि कुछ ही देर में आग बुझ जाती है। यह व्यवस्था महज औपचारिकता बनकर रह गई है।

कड़ाके की ठंड का सबसे ज्यादा असर दिहाड़ी मजदूरों, रिक्शा चालकों, बुजुर्गों और छोटे बच्चों पर पड़ रहा है। रैन बसेरों की हालत भी सवालों के घेरे में है—न पर्याप्त बिस्तर, न साफ-सफाई और न ही सुरक्षा की कोई ठोस व्यवस्था। मजबूरी में बड़ी संख्या में लोग खुले आसमान के नीचे ठंड भरी रात काटने को विवश हैं।

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चिंता की बात यह भी है कि ठंड बढ़ने के साथ जिला अस्पताल और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में सर्दी, खांसी, निमोनिया और हृदय रोग के मरीजों की संख्या लगातार बढ़ रही है। इसके बावजूद ठंड से बचाव को लेकर प्राथमिक स्तर पर कोई प्रभावी और ठोस पहल नजर नहीं आ रही है।

अब सवाल केवल प्रशासन से नहीं, बल्कि पूरे सिस्टम से है—क्या गरीबों और बेसहारा लोगों की जिंदगी सिर्फ फाइलों और बैठकों तक ही सीमित रह गई है? स्थानीय नागरिकों और सामाजिक संगठनों ने मांग की है कि सभी प्रमुख स्थानों पर नियमित रूप से अलाव जलाए जाएं, जरूरतमंदों को कंबल वितरित किए जाएं, रैन बसेरों की व्यवस्था दुरुस्त की जाए और स्वास्थ्य शिविर लगाए जाएं।

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यदि अब भी व्यवस्था नहीं जागी, तो आने वाला समय यह सवाल जरूर करेगा कि जब लोग ठंड से जूझ रहे थे, तब जिम्मेदार आखिर कर क्या रहे थे।

Karan Pandey

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