(लखनऊ से अभिषेक की रिपोर्ट)
लखनऊ (राष्ट्र की परम्परा) उत्तर प्रदेश की राजनीति और प्रशासनिक व्यवस्था इन दिनों एक अनोखे मोड़ पर खड़ी है। एक तरफ सरकार “सुशासन” का दावा कर रही है, तो दूसरी तरफ ज़मीनी हालात इसके उलट कहानी कह रहे हैं। बीते 9–10 महीनों में जो बदलाव महसूस किए गए हैं, वे अब किसी एक जिले या विभाग तक सीमित नहीं रह गए हैं, बल्कि यह पूरे प्रदेश में एक चिंताजनक विमर्श का विषय बन चुके हैं।
🔎 जनप्रतिनिधियों की खुली नाराजगी: संकेत हैं गंभीर परिणाम की?
देवरिया जिले की हालिया दिशा बैठक इसका स्पष्ट उदाहरण है, जहां भाजपा विधायक दीपक मिश्रा ने बिना किसी लाग-लपेट के प्रशासनिक लापरवाही पर तीखी प्रतिक्रिया दी। उनका कहना था कि, “अधिकारियों ने जनप्रतिनिधियों को दरकिनार करना शुरू कर दिया है। योजनाएं फाइलों में सड़ रही हैं और जनता त्राहिमाम कर रही है।”
प्रशासनिक अधिकारियों का यह रुख, जिसमें जनप्रतिनिधियों के सुझावों को नजरअंदाज किया जा रहा है, न केवल लोकतंत्र के मूल भाव को आहत करता है, बल्कि सरकार और जनता के बीच की सेतु यानी जनप्रतिनिधियों को अप्रभावी बना देता है। सवाल यह है कि क्या ये केवल ‘ताकत का प्रदर्शन’ है या फिर किसी बड़ी रणनीति की शुरुआत?
🔥 कानून व्यवस्था में गिरावट: अपराधियों का मनोबल बढ़ा
एक समय जो प्रदेश “माफिया-मुक्त” के नाम से प्रचारित हो रहा था, आज वहां अपराधी दनादन अपराध कर रहे हैं। लूट, हत्या, महिलाओं के विरुद्ध अपराध और सामूहिक हिंसा की घटनाओं में आई तेजी से आमजन का भरोसा प्रशासन पर कमजोर हो रहा है। हाल ही में वायरल हुए वीडियो, जिनमें अपराधी खुलेआम हथियारों के साथ नजर आए, यह साबित करते हैं कि ‘डर’ नाम की कोई चीज प्रशासनिक तंत्र में बची नहीं है।
क्या यह सिर्फ प्रशासनिक ढिलाई है या फिर प्रशासनिक तंत्र के भीतर से ही सरकार की साख को कमजोर करने की कोशिशें चल रही हैं? यह सवाल अब राजनीतिक गलियारों में जोर पकड़ने लगा है।
🧠 सोशल मीडिया और सामाजिक ताना-बाना: कहीं ये साजिश तो नहीं?
सोशल मीडिया पर जातिगत और सांप्रदायिक तनाव फैलाने वाले संदेशों की बाढ़-सी आ गई है। विशेषज्ञों का मानना है कि यह केवल तकनीकी विफलता नहीं, बल्कि एक सुनियोजित ‘डिस्ट्रैक्शन रणनीति’ का हिस्सा हो सकती है। जब जनता मूलभूत मुद्दों (बिजली, स्वास्थ्य, रोजगार) से भटकेगी, तब प्रशासनिक विफलताओं पर पर्दा डालना आसान हो जाएगा।
⚡ बिजली संकट और स्वास्थ्य सेवाएं: जनता बेहाल
देवरिया, कुशीनगर, गोरखपुर जैसे जिलों में 12–14 घंटे की बिजली कटौती आम हो गई है। गर्मी में त्रस्त लोग, अस्पतालों की बदहाली और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में ताले… यह हालात सरकार के “विकास” के दावों को आईना दिखा रहे हैं। इन आवाज को जब ऊर्जा मंत्री ने सुना तो अधिकारियों को चेतावनी देते एक वीडियो भी वायरल हुआ। इसी प्रकार मुख्यमंत्री के शहर में जब एक सोशल मीडिया पर वीडीओ ट्रेनिंग में आई महिला पुलिस के लिए महिलाओं की आप बीती सामने आया तो बड़ी कार्यवाही हुई दाना दन कई अधिकारी मुख्यालय अटैच हुए कई निलंबित क्या सरकार के समझ में अब मामला आने लगा है की कौन दोषी है? या प्रशासनिक अमला अभी और फजीहत कराएगी सरकार की?
सरकारी अस्पतालों में दवा की किल्लत, डॉक्टरों की अनुपस्थिति और उपकरणों की खराबी एक आम अनुभव बन गया है। यह सवाल उठना लाजमी है कि क्या स्वास्थ्य और बिजली जैसे बुनियादी क्षेत्र अब सरकार की प्राथमिकता में नहीं हैं?
🕵️ गोरखपुर की ट्रेनिंग धांधली: सीएम के गढ़ में पारदर्शिता की कमी?
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के गृह जिले गोरखपुर में हाल ही में महिला सुरक्षा से जुड़ी ट्रेनिंग में बड़े पैमाने पर धांधली के आरोप सामने आए। यह घटनाक्रम सत्ता के लिए बेहद शर्मनाक स्थिति है और यह सवाल उठाता है: “अगर मुख्यमंत्री के जिले में ही पारदर्शिता की गारंटी नहीं दी जा सकती, तो बाकी जिलों में क्या हो रहा होगा?”
🧭 राजनीतिक विश्लेषण: प्रशासन बनाम जनप्रतिनिधि — कौन चला रहा प्रदेश?
राजनीतिक विश्लेषकों की राय में यह परिस्थिति केवल शासन की चूक नहीं, बल्कि एक संभावित अंदरूनी साजिश का संकेत भी हो सकती है। अगर अधिकारी अपनी मनमानी पर उतर आएं, और जनप्रतिनिधियों की उपेक्षा कर “सरकार से बड़ी सत्ता” का आभास देने लगें — तो यह सीधे-सीधे लोकतंत्र की नींव को कमजोर करने का प्रयास है।
📢 निष्कर्ष: आत्ममंथन का समय है!
सरकार को यह समझना होगा कि जनता का भरोसा सबसे बड़ी पूंजी है, और प्रशासनिक तंत्र को नियंत्रित करना उसकी सबसे बड़ी जिम्मेदारी। यदि चुने हुए प्रतिनिधि खुद को उपेक्षित महसूस करें, और जनता व्यवस्था से विमुख हो जाए, तो सत्ता का टिकना कठिन हो जाता है।
🧾 यह केवल सुझाव नहीं, जनआवाज है —
“प्रशासन जनता का सेवक है, उसका शासक नहीं!”
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