सुर साम्राज्ञी का जीवन पूरा हो गया
सरस्वती पूजा व आज माँ विदा हो गई,
लगता है माँ सरस्वती अपनी सबसे
प्रिय पुत्री को लेने स्वयं ही आयी थीं।
मृत्यु सदैव शोक का विषय नहीं होती,
लता जी की मृत्यु जीवन की पूर्णता है,
उनका जीवन जितना सुन्दर रहा है,
उनकी मृत्यु भी उतनी ही सुन्दर हुई है।
बानबे वर्ष का इतना सुन्दर और भव्य
जीवन विरलों को ही प्राप्त होता है,
पाँच पीढ़ियों ने उन्हें मंत्रमुग्ध होकर
सुना और हृदय से सम्मान दिया है।
पिता ने जब अपने अंतिम क्षणों में
घर की ज़िम्मेदारी उनके हाथों में दी थी,
तब तेरह वर्ष के उनके ऊपर छोटे चार
भाई बहन के पालने की जिम्मेवारी थी।
लता जी ने अपना समस्त जीवन
उन चारों को समर्पित कर दिया,
जब वे गईं तो उनका परिवार देश के
सबसे सम्मानित परिवारों में से एक है।
किसी भी व्यक्ति का जीवन इससे
और अधिक सफल क्या होगा ?
भारत ही नहीं विश्व, पिछले अस्सी
वर्षों से उनके गीतों के साथ जी रहा है।
हर्ष में, विषाद में, ईश्वर भक्ति में,
राष्ट्रभक्ति में, प्रेम में, परिहास में,
हर भाव में लता जी के सरगम का
स्वर सारे जगत का स्वर रहा है।
गाना उनके लिए पूजा करने जैसा था,
कोई उनके घर जाता तो उसे माता
पिता की तस्वीर व घर में बना अपने
आराध्य का मन्दिर दिखातीं थीं।
बस इन्ही तीन चीजों को सबको
दिखाने लायक समझा था उन्होंने,
सोच कर देखिये, कैसा दार्शनिक
भाव है, यह कितनी अद्भुत समझ है।
इन तीन के अतिरिक्त सचमुच और
कुछ महत्वपूर्ण नहीं होता संसार में,
जीवन में बाक़ी धन दौलत और वैभव
सब आते-जाते रहने वाली चीजें हैं।
अद्भुत संयोग है कि लगभग सत्तर वर्ष
के संगीत मय जीवन में क़रीब छत्तीस
भाषाओं में हर रस भाव के पचास
हजार से अधिक गीत गाया लताजी ने।
अपना पहले व अंतिम हिन्दी फिल्म
गीत के रूप में भगवान भजन ही गाया है,
‘ज्योति कलश छलके’ से ‘दाता सुन
ले’ तक कि यात्रा का सौंदर्य यही है।
इस महान यात्रा में लताजी न कभी
अपने कर्तव्य से डिगीं न अपने धर्म से,
आपकी इस महान यात्रा के पूर्ण होने पर
लताजी आदित्य का आपको प्रणाम है।
- डा० कर्नल आदि शंकर मिश्र ‘आदित्य’
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