
माटी री बोली में घुली कविता री आत्मा
हरियाणा रा नाम आवै तो मन मैं दूध-दही, खेत-खलियाण, पहलवान, चौपाल, बागड़ी-जेबड़ी बोली अर सादगी भर्यी जिन्दगी सै। पर इस हरियाणा री धरती तले जड़ी माटी में एक आंधरी बात सै – संवेदना। डॉ. सत्यवान सौरभ की किताब “बोल म्हारी माटी” इस संवेदना नै कविता में ढाल के हमारे ताई ल्याई सै। ई बही केवल कवितां रो संग्रह ना, एक दस्तावेज़ सै – हरियाणवी माटी, बोली, संस्कृति अर् लोक चेतना रो।
बोल म्हारी माटी – इब केवळ एक किताब ना सै, ये तो हरियाणवी जीवन का झरोखा सै। इसमें गाँव री खुरदरी बोली सै, माँ की थपकी सै, बापू के खेत सै, फौजी का जुनून सै, छोरी का गुस्सा सै, और चौपाल की हंसी सै। हर , हर दोहा, हर कुण्डलिया – एक किस्सा सुनावै सै। मैं इस संग्रह के ज़रिए अपने हरियाणे नै सलाम करूं सै – उसकी मिट्टी नै, उसकी छाया नै, उसकी बोली नै। जइसे-जइसे आप पढ़ोगे, हर शब्द में अपने गांव की छाया पाओगे।
जड़ां तै जुड़ी बानी
डॉ. सौरभ रा लेखन जमीन तै जुड़्या सै। के नै देखो:
“रोटी अर् लीलू प्याज सै,
दुपहर की घणी माज सै।
घणी-घणी कर मत पाछे हो,
म्हारा बखत भी आज सै।”
ई पंक्तियां मजदूर रा दर्द भी बखाणे सै अर उस रे आत्मगौरव भी। भाषा बिलकुल लोक बोली की सै – जैसे दादी-नानी बतावें, चौपाल में होवे चर्चां।
कविता में हरियाणवी छोरी
संग्रह में छोरी रा चित्रण एक दम सजीव सै। डॉ. सौरभ छोरी नै केवल बेबस ना बतावै, वो बदलण आली ताकत दिखावै सै।
“घूँघट की ओट में ढलती जिन्दगी,
अब किताबां की हेडलाइन बनगी।
लुगाई नै छोरा समझ कै पढाओ,
सच माणो, अर नॅ बदलाओ।”
ई कविता में घूँघट हट रया सै, कलम हाथ में आ रई सै, अर छोरी समाज री रीढ़ बन रई सै।
किसानी, खलिहाण अर मजदूर
हरियाणवी किसान माटी तै जुड़्या होया सै, अर सौरभ जी उकरे हर दर्द नै लफ्जां में पिरोया सै।
“म्हारी जमीन भले बंजर हो,
हौंसले रा बीज जमावां सै।
खून-पसीने से सींची माटी,
म्हारे बाबुल का भावां सै।”
ई कविता माटी रा मान बढ़ावै सै। कविता में पसीना भी सै, अर बगावती आत्मा भी।
आंदोलन री आवाज
संग्रह में आंदोलन, सरकार रा जुल्म, बेरोजगारी अर शोषण पे कई कविता सै। एक कविता देखो:
“धान का दाना दे कै,
गन्ना का रस चूंस कै,
सरकार नै थप्पड़ मारे,
म्हारे झोले सै छूं-सकै!”
ये पंक्तियां केवल विरोध ना, चेतना सै – किसान री, मजदूर री, गरीब री।
बालपन रा रंग
बाल जीवन पे लिख्या खंड “बचपन रा रंग” सच्ची मासूमियत सै भर्या सै।
“नंगे पांव दौड़या करते,
गलियां नै अपनावें सै।
मिट्टी रा कंचा लुढ़कावें,
अर् मन का गीत गावें सै।”
ई पंक्तियां सुन के लागै सै जैसे अपने बचपन के दिन लौट आवें।
छंद, शैली अर सौंदर्य
संग्रह में दोहा, चौपाई, कुण्डलिया, मुक्तछंद – सब मिलकै कविता नै जीवंत बना दिया। पर सब में हरियाणवी बानी रो ठाठ सै।
“माटी की बातां में, सच्चाई का शोर,
झूठ का रंग फीका पड़े, जब बोले गांव का मोर ।”
छोटा छंद, पर बात गहरी – ई डॉ. सौरभ री खासियत सै।
लोक संस्कृति री जीती-जागती तस्वीर
बोल म्हारी माटी में हरियाणवी संस्कृति री हर परत नजर आवै सै – तीज-त्यौहार, घाघरा-ओढ़णी, चूल्हा-धूणी, गीत-नाच, किस्सा-कहाणी। ई किताब एक सांस्कृतिक दस्तावेज़ सै। जे कोए भी हरियाणा नै समझना चावै, वो पहले ई किताब पढ़ै। “बोल म्हारी माटी” कोई किताब भर ना सै, ई तै हरियाणा की धरती की धड़कन सै। इब के जमाने में जब लोग अपनी बोली तै शर्माण लागे सै, तब या संग्रह उन सब नै याद दिलावै सै के अपनी माटी, अपनी जुबान, अर अपनी जड़ नै कदे भूलणा ना चाहिए। इस किताब में जो एं सै, वो सीधे मन सूं निकळी सै – किसान की थकी पीठ सूं, नारी की चुप आंखां सूं, बेरोजगार छोरे की हँसी सूं, मास्टर की मजबूरी सूं, अर राजनीति के रंगमंच की खामोशी सूं। हर 16-16 पंक्तियों की सै, अर हर 4 पंक्ति के बाद एक सांस लेण ताईं जगह दी गई सै — ज्यूं जिंदगी में ठहराव होवै सै। लेखक नै कोई चौंकावण की या दिखावटी बात ना करी — जे जैसा समाज में देख्या, समझ्या, और सह्या, वैसा ही लिख दिया। इब चाहे आप गांव में रहो या शहर में, पढ़ कै आपनै लागैगा के – “हां, ई बात तो मेरी भी सै।” ये संग्रह लख्मीचंद की चौपाल सूं उठी बोली नै इब की पीढ़ी ताईं पहुंचावै का काम करै सै — ताकि वो समझ सकै के केवल किताब में ना, जिंदगी में भी होवे सै।
आखिरी बात, क्यों पढ़ो ई बही?
हरियाणा रा असल चेहरा देखणा हो – पढ़ो। हरियाणवी बोली में साहित्य के स्तर की समझ चाहीए – पढ़ो। छोरी, मजदूर, किसान, आंदोलन, बचपन – सबकी आवाज़ सुणणी हो – पढ़ो। ई बही केवल कवितां का ढेर ना, ई हरियाणवी आत्मा री पुकार सै। डॉ. सत्यवान सौरभ की “बोल म्हारी माटी” हरियाणा री बोली, रीति-नीति, अर् आत्मा नै लफ्जां में सजा दे सै। ई संग्रह हर घर, हर पाठशाला, हर शोधार्थी ताई पहुंचणा चाहीए।
डॉ सत्यवान सौरभ
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