
दलाई लामा के जन्म दिवस पर विशेष

(लेखक – नवनीत मिश्र)
जब हम “दलाई लामा” का नाम लेते हैं, तो हमारी स्मृतियों में एक शांत मुस्कान, सौम्य दृष्टि और करुणा से परिपूर्ण एक ऐसा दिव्य व्यक्तित्व उभरता है, जिसने जीवनभर मानवता की सेवा को ही अपना धर्म माना। वे केवल तिब्बती बौद्ध धर्म के सर्वोच्च गुरु नहीं, बल्कि समस्त विश्व के लिए शांति, अहिंसा और सह-अस्तित्व के प्रतीक बन चुके हैं।
6 जुलाई 1935 को तिब्बत के ताकस्तेर नामक एक छोटे से गाँव में जन्मे तेनज़िन ग्यात्सो को बहुत ही कम आयु में यह पहचाना गया कि वे 13वें दलाई लामा का पुनर्जन्म हैं। मात्र दो वर्ष की अवस्था में वे एक साधारण बालक से तिब्बती आध्यात्मिक परंपरा के उत्तराधिकारी बन गए। एक ओर उनका बाल्यकाल था, दूसरी ओर वह विराट दायित्व जिसकी छाया में उन्हें अपना समर्पित जीवन प्रारंभ करना था। उन्होंने बाल्यकाल से ही ध्यान, दर्शन, तर्कशास्त्र, संस्कृत, तिब्बती भाषा, औषध विज्ञान और तांत्रिक साधनाओं का कठोर अभ्यास किया।
जीवन का सबसे कठिन मोड़ तब आया, जब 1959 में चीन द्वारा तिब्बत पर बलपूर्वक अधिकार किए जाने के बाद उन्हें अपने देश से निर्वासन का मार्ग चुनना पड़ा। वे अपनी जन्मभूमि छोड़कर भारत आए। यह पल किसी भी व्यक्ति के लिए अत्यंत पीड़ादायक होता, परंतु दलाई लामा ने इस कठिन घड़ी को भी करुणा, धैर्य और मानवता के उजाले में बदल दिया। उन्होंने कभी प्रतिशोध या हिंसा का मार्ग नहीं अपनाया। धर्मशाला (हिमाचल प्रदेश) को अपना नया आश्रय बनाते हुए, उन्होंने न केवल निर्वासित तिब्बती समुदाय का पुनर्गठन किया, बल्कि तिब्बत की भाषा, संस्कृति और अध्यात्म को भी जीवंत बनाए रखा। भारत ने उन्हें प्रेमपूर्वक अपनाया, और उन्होंने भारत तथा विश्व को अपनी करुणामयी दृष्टि और शांतिपूर्ण जीवनदर्शन से समृद्ध कर दिया।
दलाई लामा का जीवन हमें यह सिखाता है कि शक्तिशाली होना आवश्यक नहीं, करुणावान होना कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। वे कहा करते हैं — “मेरा धर्म बहुत सरल है — वह है करुणा।” इस एक वाक्य में उनका जीवन-दर्शन, आध्यात्मिकता और मानवीयता समाहित है। उनका यह विश्वास अटूट है कि हम सभी एक-दूसरे से जुड़े हैं, और हमारा सर्वोच्च धर्म है — दूसरों के दुःख को समझना और उसमें सहभागी बनना।
उन्होंने कभी धर्म की सीमाओं में रहकर मानवता को नहीं बाँधा। वे हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, यहूदी, सिख, जैन — सभी धर्मों के प्रति समभाव और सम्मान रखते हैं। वे धार्मिक से अधिक आध्यात्मिक हैं — और यही उन्हें वैश्विक नेता बनाता है। उन्होंने अनेक बार कहा है कि यदि कोई धर्म करुणा नहीं सिखाता, तो वह धर्म नहीं हो सकता।
दलाई लामा आधुनिक विज्ञान के साथ संवाद को प्रोत्साहित करते हैं। वे वैज्ञानिकों, शिक्षकों, और शोधकर्ताओं से मिलते हैं; मस्तिष्क, चेतना और नैतिकता पर चर्चा करते हैं। वे युवाओं को यह संदेश देते हैं कि विज्ञान और आत्मबोध के बीच संतुलन आवश्यक है। वे उन दुर्लभ संतों में हैं, जिन्होंने तकनीकी युग में भी आत्मा की आवाज़ को कभी अनसुना नहीं किया।
उनकी शिक्षाएं केवल पुस्तकों में नहीं, बल्कि उनके जीवन व्यवहार में प्रकट होती हैं। वे जब किसी सभा में प्रवेश करते हैं, तो उनकी आँखों की कोमलता, उनकी विनम्र मुस्कान और हाथ जोड़ने की आत्मीयता लोगों के हृदय को छू लेती है। वे कहा करते हैं — “अगर आप दूसरों को खुश देखना चाहते हैं, तो करुणावान बनिए। अगर आप स्वयं को खुश देखना चाहते हैं, तब भी करुणावान बनिए।”
उनका जन्मदिवस केवल उनकी उपलब्धियों की स्मृति नहीं, बल्कि यह दिन हमारी मानवीय चेतना को पुनर्जीवित करने का निमंत्रण है। आज जब विश्व चारों ओर संघर्ष, असहिष्णुता और आत्मकेंद्रितता से घिरा हुआ है, तब दलाई लामा जैसे विराट व्यक्तित्व हमें यह याद दिलाते हैं कि सच्चा सुख दूसरों के चेहरे पर मुस्कान लाने में है। शांति कोई विचारधारा नहीं, बल्कि दैनिक जीवन की एक साधना है, जो हमारे प्रत्येक छोटे-छोटे कार्यों में झलकनी चाहिए।
उनकी उपस्थिति, जीवन-दृष्टि और साधुता हमें यह भरोसा देती है कि इस संसार में आज भी ऐसे लोग हैं, जो निःस्वार्थ भाव से मानवता के लिए जीते हैं। ऐसे में उनके जन्मदिवस पर हम केवल बधाई नहीं, बल्कि एक संकल्प दोहराते हैं — कि हम भी उनके दिखाए मार्ग पर, भले ही छोटे स्तर पर सही, चलने का प्रयास करेंगे।
दलाई लामा केवल एक व्यक्ति नहीं हैं — वे एक भावना हैं, एक संवेदना हैं, जो हर उस व्यक्ति के भीतर जीवित हैं, जो करुणा, सहानुभूति और सेवा का दीपक अपने अंतर्मन में जलाए हुए है।
उनके जन्मदिवस के पावन अवसर पर हम यह प्रार्थना करते हैं —
“हे करुणा के अग्रदूत, आपके विचार हम सभी के अंतर्मन को आलोकित करते रहें। हम उस विश्व की रचना में सहभागी बनें, जो प्रेम, शांति और मानवीय गरिमा पर आधारित हो।”
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