डॉ.सतीश पाण्डेय
महराजगंज (राष्ट्र की परम्परा)। आस्था मानव जीवन का अभिन्न हिस्सा है, जो व्यक्ति को नैतिकता, संस्कार और आत्मिक शांति प्रदान करती है। वहीं राजनीति समाज को दिशा देने और जनहित की नीतियां तय करने का माध्यम है। लेकिन जब आस्था और राजनीति की सीमाएं धुंधली होने लगती हैं, तब यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि लोकतंत्र की मूल भावना कितनी सुरक्षित है।
वर्तमान समय में यह देखा जा रहा है कि चुनावी राजनीति में धार्मिक और सांस्कृतिक भावनाओं का प्रभाव बढ़ा है। आस्था से जुड़े विषय जनभावनाओं को जोड़ने का माध्यम बनते हैं, लेकिन इसके साथ यह भी जरूरी है कि विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और महंगाई जैसे बुनियादी मुद्दे केंद्र में बने रहें। लोकतंत्र की मजबूती इसी संतुलन पर निर्भर करती है।
धर्म और परंपराएं समाज को जोड़ने का कार्य करती हैं, परंतु राजनीति का उद्देश्य सभी वर्गों के लिए समान अवसर और सुविधाएं सुनिश्चित करना होता है। यदि आस्था आधारित विमर्श अत्यधिक हावी हो जाए, तो नीति और विकास से जुड़े प्रश्न पीछे छूटने लगते हैं। इससे समाज में मतभेद बढ़ने की आशंका भी बनी रहती है, जो दीर्घकाल में सामाजिक समरसता के लिए ठीक नहीं है।
चुनावी प्रक्रिया की निष्पक्षता बनाए रखने में चुनाव आयोग और संवैधानिक संस्थाओं की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। आचार संहिता और संविधान की धर्मनिरपेक्ष भावना का पालन लोकतंत्र को मजबूत बनाता है और जनता के विश्वास को कायम रखता है।
अंततः लोकतंत्र की असली शक्ति मतदाता के विवेक में निहित है। मतदाता जितना जागरूक होगा, उतनी ही राजनीति उत्तरदायी बनेगी। आस्था का सम्मान करते हुए जब मत नीति, विकास और भविष्य की योजनाओं के आधार पर दिया जाएगा, तभी लोकतांत्रिक व्यवस्था और अधिक सुदृढ़ हो सकेगी। संतुलित सोच और जिम्मेदार मतदान ही एक मजबूत लोकतंत्र की पहचान है।
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