डिग्री नहीं, कौशल चाहिए: क्यों बदल रही है युवाओं की सोच

बीए-बीएससी-बीकॉम का घटता आकर्षण: नई पीढ़ी की बदलती प्राथमिकताएँ

कभी बीए, बीएससी या बीकॉम जैसी पारंपरिक डिग्रियों को उच्च शिक्षा की पहचान माना जाता था। यह डिग्रियाँ समाज में सम्मान, सरकारी नौकरी की पात्रता और एक सुरक्षित भविष्य का प्रतीक थीं। लेकिन आज के युवा का रुझान इन डिग्रियों से लगातार घटता जा रहा है। नतीजा यह है कि पारंपरिक स्नातक पाठ्यक्रमों में दाख़िला लेने वालों की संख्या कम हो रही है, जबकि तकनीकी, व्यावसायिक और कौशल आधारित कोर्सेज़ की ओर युवाओं का झुकाव तेज़ी से बढ़ा है। यह बदलाव सिर्फ़ शिक्षा के क्षेत्र का नहीं, बल्कि समाज, अर्थव्यवस्था और रोजगार की दिशा बदलने का संकेत है।
बीते दो दशकों में देश का रोजगार परिदृश्य पूरी तरह बदल चुका है। निजी क्षेत्र का विस्तार, डिजिटल तकनीक की तेज़ रफ्तार और वैश्वीकरण ने युवाओं की सोच को भी बदला है। आज का विद्यार्थी सिर्फ़ डिग्री नहीं, बल्कि रोजगार की गारंटी चाहता है। बीए या बीएससी जैसी डिग्रियाँ जहाँ ज्ञान का विस्तार करती हैं, वहीं वे नौकरी के लिहाज़ से तुरंत उपयोगी नहीं मानी जातीं। दूसरी ओर, इंजीनियरिंग, मैनेजमेंट, नर्सिंग, पैरामेडिकल, आईटी, डिज़ाइनिंग और डिजिटल मार्केटिंग जैसे कोर्स युवाओं को सीधे रोजगार के अवसरों से जोड़ रहे हैं। ऐसे में जब परिवार भी शिक्षा को “इन्वेस्टमेंट” के रूप में देखने लगे हैं, तो स्वाभाविक है कि डिग्रियों से मोहभंग बढ़े।
देश में बेरोजगारी की दर लगातार चिंता का विषय बनी हुई है। स्नातक और स्नातकोत्तर डिग्रीधारक युवाओं में बेरोजगारी दर सबसे अधिक है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी (CMIE) की रिपोर्टों में यह स्पष्ट हुआ है कि उच्च शिक्षा प्राप्त युवाओं में बेरोजगारी 17 से 25 प्रतिशत तक है। ऐसे में जब एक बीए या बीएससी छात्र तीन साल तक पढ़ाई कर भी नौकरी के लिए संघर्ष करता है, और वहीं आईटीआई, डिप्लोमा या कंप्यूटर कोर्स करने वाला युवा जल्द ही किसी निजी कंपनी में काम पा जाता है, तो पारंपरिक शिक्षा पर प्रश्न उठना स्वाभाविक है। यही कारण है कि आज “डिग्री नहीं, स्किल चाहिए” का नारा नए भारत के युवाओं की सोच बन गया है।
बीए और बीएससी जैसे पाठ्यक्रमों से मोहभंग का एक बड़ा कारण शिक्षा की गुणवत्ता में गिरावट भी है। देश के अधिकांश विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में न तो पर्याप्त प्रयोगशालाएँ हैं, न ही आधुनिक पाठ्यक्रम। पढ़ाई अब भी दशकों पुराने सिलेबस पर आधारित है, जो वर्तमान उद्योग या तकनीक की आवश्यकताओं से मेल नहीं खाता। कई कॉलेजों में शिक्षक भर्ती में पारदर्शिता की कमी, अस्थायी शिक्षक व्यवस्था और छात्र राजनीति के दखल ने भी शैक्षणिक माहौल को प्रभावित किया है। ऐसे में जब युवा को यह एहसास होता है कि सिर्फ़ डिग्री लेना उसके भविष्य को सुरक्षित नहीं कर सकता, तो वह अन्य विकल्पों की तलाश करता है।
डिजिटल युग की सबसे बड़ी देन यह है कि आज सीखने के हजारों नए रास्ते खुल गए हैं। ऑनलाइन प्लेटफॉर्म जैसे Coursera, Udemy, Skill India या Google Career Certificates ने युवाओं को ऐसे कोर्स उपलब्ध कराए हैं, जो कुछ ही महीनों में उन्हें रोजगार के योग्य बना देते हैं। युवाओं को अब यह महसूस हो रहा है कि अगर तीन साल बीए करने में लगाकर भी कोई सुनिश्चित भविष्य नहीं मिलता, तो उतने समय में कोई तकनीकी या डिजिटल कोर्स करके वे स्वतंत्र रूप से काम शुरू कर सकते हैं। यानी शिक्षा का उद्देश्य अब केवल ‘ज्ञान प्राप्ति’ नहीं, बल्कि ‘जीवनोपार्जन’ हो गया है।
पहले समाज में किसी भी व्यक्ति के लिए यह कहा जाता था, “वह बीए पास है”, तो यह गर्व की बात होती थी। लेकिन आज जब अधिकांश युवाओं के पास स्नातक की डिग्री है और नौकरी नहीं, तो वह प्रतिष्ठा स्वतः घट गई है। डिग्री का मूल्य अब परिणाम से जुड़ गया है — कितनी आमदनी है, कितनी उपयोगिता है। यह सोच समाज की बदलती आर्थिक मानसिकता को दर्शाती है, जहाँ अब ‘ज्ञान’ की जगह ‘कैरियर’ प्रमुख है।
एक और बड़ा कारण है सरकारी नौकरियों की सीमितता। बीए और बीएससी जैसे कोर्स परंपरागत रूप से सरकारी सेवा की तैयारी के लिए लोकप्रिय रहे हैं। लेकिन अब नौकरियों की संख्या घट रही है, प्रतियोगिता बढ़ रही है, और चयन प्रक्रिया वर्षों खिंच रही है। ऐसे में युवा खुद को ठगा हुआ महसूस करता है। वह देखता है कि उसके साथी डिजिटल प्लेटफॉर्म या निजी कंपनियों में काम कर रहे हैं, तो उसका ध्यान धीरे-धीरे उस दिशा में मुड़ने लगता है।
भारत में शिक्षा व्यवस्था अब भी सिद्धांत प्रधान है, जबकि उद्योग कौशल प्रधान। बीए या बीएससी का छात्र पुस्तकीय ज्ञान में तो निपुण होता है, लेकिन उद्योग को ऐसे कर्मचारी चाहिए जो तुरंत कार्य में दक्ष हों। इस अंतर को न पाट पाने की वजह से विश्वविद्यालयों से निकलने वाले लाखों छात्र सीधे बाजार की मांग से मेल नहीं खाते। जबकि विदेशी विश्वविद्यालय अब “इंडस्ट्री इंटीग्रेटेड” मॉडल पर काम कर रहे हैं, जहाँ छात्र को पढ़ाई के साथ-साथ व्यावहारिक अनुभव भी दिया जाता है।
इस स्थिति में सुधार के लिए आवश्यक है कि विश्वविद्यालय अपने पाठ्यक्रमों को उद्योग की जरूरतों के अनुरूप ढालें। पारंपरिक विषयों में भी रोजगारोन्मुख मॉड्यूल जोड़े जाएँ। हर स्नातक छात्र को किसी न किसी स्किल सर्टिफिकेट कोर्स से जोड़ा जाए, ताकि वह डिग्री के साथ-साथ व्यावहारिक दक्षता भी हासिल करे। जैसे इंजीनियरिंग में प्रशिक्षण अनिवार्य है, वैसे ही बीए, बीएससी छात्रों के लिए भी इंटर्नशिप या प्रोजेक्ट आधारित शिक्षा लागू की जानी चाहिए। विद्यालय स्तर से ही विद्यार्थियों को उनके रुचि और योग्यता के अनुसार करियर काउंसलिंग मिले, ताकि वे केवल परंपरा या दबाव में नहीं, बल्कि समझदारी से विषय चुनें। सरकार और उद्योग जगत को भी मिलकर ऐसे कार्यक्रम शुरू करने चाहिए जो अकादमिक ज्ञान और रोजगार कौशल के बीच सेतु का कार्य करें।
बीए, बीएससी जैसी डिग्रियों से मोहभंग केवल युवाओं की अधीरता नहीं, बल्कि समय की वास्तविकता है। यह बदलाव बताता है कि भारतीय समाज अब “डिग्री आधारित” से “कौशल आधारित” युग में प्रवेश कर चुका है। शिक्षा व्यवस्था यदि इस परिवर्तन को समझकर खुद को अद्यतन कर ले, तो ये डिग्रियाँ फिर से सम्मान और उपयोगिता दोनों की दृष्टि से प्रासंगिक हो सकती हैं। परंतु यदि विश्वविद्यालय पुराने ढर्रे पर ही चलते रहे, तो आने वाले वर्षों में यह मोहभंग स्थायी रूप ले लेगा और तब “स्नातक” शब्द केवल औपचारिक योग्यता बनकर रह जाएगा, भविष्य का द्वार नहीं।

rkpNavneet Mishra

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