विकास की रोशनी के मुहताज दूसरों के घरों को रोशन करने वाले कुम्हार बिरादरी के लोग
उतरौला (बलरामपुर) (राष्ट्र की परम्परा) मिट्टी के दीए बनाकर दूसरों के घरों को रोशन करने वाले कुम्हार बिरादरी के लोग आजादी के 75 साल बीत जाने के बाद भी विकास की रोशनी के मुहताज हैं। आधुनिकता के दौर में कुल्हड़ के जगह प्लास्टिक गिलास मिट्टी के कलश के जगह पीतल व स्टील के चलन तथा इस बार आई भीषण बाढ़ ने इन कुम्हारों के सामने रोजी रोटी का संकट पैदा कर दिए हैं। पुश्तैनी धंधा होने के नाते महंगाई के दौर में मिट्टी के दीए आदि बेचकर परिवार का भरण-पोषण करने वाले कुम्हार व कसघड़ बिरादरी के लोगों का कोई पुरसाहाल नहीं है।
दीपों का पर्व दीपावली नजदीक आते ही हिन्दू समाज में कुम्हार जाति तथा अल्पसंख्यक समुदाय के कसघड़ बिरादरी के लोगों द्वारा मिट्टी को गूंथकर चाक के सहारे दिए,बर्तन, खिलौने आदि बनाने की अद्भुत कला उनके घूमते चाक व हाथ से बनकर निकलती है उन्हीं कसघड़ व कुम्हार द्वारा बनाए गए मिट्टी के दीए जलाकर दीपावली में भले ही लोग अपने घरों को जगमगाते हैं परन्तु आजादी के 74साल बीतने के बाद भी वे विकास की रोशनी से अब भी महरूम हैं। जिसके चलते वह आज भी झुग्गी झोपड़ी में जीवन गुजर बसर करने को मजबूर हैं। दीपावली ही एक ऐसा पर्व है जिस पर्व में लोग मिट्टी के दीपकों को कतारबद्ध तरीके से सजाकर दीपावली पर्व का आनंद उठाते हैं। बगैर दीप के दीपावली पर्व की कल्पना नहीं की जा सकती, पहले हर घर में दीये जलते थे किसी के यहां 100,500व एक हजार तक दीये की खरीदारी होती थी और इसको जलाकर घर के चारों ओर सजाया जाता था। जिससे दीये बनाने वाले कुम्हार समाज भी खुश रहते थे।कस्बे के मोहल्ला आर्य नगर में मिट्टी के दीए बनाने वाले कसघड़ मोहम्मद यासीन बताते हैं कि वर्तमान समय में पूंजी भी निकालना मुश्किल हो गया है अब खा पीकर हिसाब बराबर हो जा रहा है। मिट्टी के बर्तन पकाने के लिए लकड़ी आदि सामग्री महंगी हो गई है। उन्होंने कहा कि इस आधुनिक युग में मिट्टी के दीयों की जगह अब इलेक्ट्रॉनिक कुमकुमी व चाइनीज झालरों ने ले ली है। जबकि इन दीपों से निकलने वाली यह लौ सदियों से सारे संसार को शांति भाई चारा का संदेश देती है। लेकिन वर्तमान समय में दीये की बिक्री तो होती है लेकिन पहले जैसी नहीं हो पाती। ग्रामीण क्षेत्र के मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कुम्हार राजाराम बताते हैं कि मिट्टी के बर्तन बनाकर बेचना उनका पुश्तैनी धंधा है हालांकि इसी धंधे से पहले परिवार का भरण-पोषण कर लेना आसान था परन्तु आधुनिकता के दौर में मिट्टी के बर्तन का प्रचलन काफी घट चुका है मंहगाई के कारण लागत के अनुपात में आमदनी काफी कम हो गई है।वहीं बाढ़ के कारण मिट्टी के दिए व वर्तन पकाने वाले भठ्ठी डूब जाने इस बार धंधा नहीं के बराबर है।वैसे इस नाजुक धंधे के कारण अब घर के युवा इस धंधे में रूचि न लेकर रोजी रोटी के लिए शहरों की ओर पलायन करने लगे हैं।
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