क्या वास्तव में बैंक निजीकरण की प्रक्रिया शुरू हो गई है?-वित्त मंत्री के बयानों से उत्पन्न हलचल, संकेत और सच्चाई- बैंक राष्ट्रीयकरण से निजीकरण की बहस तक का सटीक विश्लेषण
गोंदिया – वैश्विक स्तरपर भारत में बैंकिंग क्षेत्र हमेशा से आर्थिक नीति और सामाजिक न्याय का केंद्र रहा है। 1969 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा 14 प्रमुख बैंकों के राष्ट्रीयकरण के साथ जिस नए युग की शुरुआत हुई, उसका उद्देश्य केवल पूंजी का पुनर्वितरण नहीं था बल्कि समाज के हाशिए पर खड़े लोगों को वित्तीय समावेशन में लाना था।बैंक शाखाओं का ग्रामीण विस्तार,प्राथमिक क्षेत्र को ऋण प्रवाह,और आम नागरिक की आर्थिक पहुँच को सुनिश्चित करना,ये सब उस नीति का सार था। परंतु अब, जब भारत की अर्थव्यवस्था वैश्वीकरण, डिजिटलीकरण और प्रतिस्पर्धा की नई लहर में प्रवेश कर चुकी है,तो सवाल उठता है,क्या राष्ट्रीयकृत बैंक अपनी सामाजिक भूमिका के साथ-साथ आर्थिक दक्षता भी निभा पा रहे हैं? इसी संदर्भ में हाल ही में केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के बयान ने न केवल नीति निर्माताओं,बल्कि बैंक यूनियनों,उद्योग जगत और अंतरराष्ट्रीय वित्तीय विश्लेषकों में भी हलचल पैदा कर दी है।केंद्रीय वित्त मंत्री ने हाल ही में कहा कि “जिस उद्देश्य से बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया था, वह अभी पूरी तरह पूरा नहीं हुआ है।” यह कथन अपने आप में दोहरे अर्थों से भरा है।मैंएडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानीं गोंदिया महाराष्ट्र यह मानता हूं कि एक तरफ यह स्वीकारोक्ति है कि राष्ट्रीयकरण की मूल भावना, ग्रामीण ऋण पहुंच, सामाजिक न्याय और आर्थिक समानता,अब भी अधूरी है।वहीं दूसरी ओर, यह भी संकेत देता है कि सरकार इस“अधूरेपन”को पूरा करने के लिए नई नीतिगत दिशा में सोच रही है।बयान के तुरंत बाद मीडिया और बैंकिंग हलकों में सवाल उठा,क्या इसका अर्थ यह है कि सरकार अब निजीकरण की प्रक्रिया को धीमा कर रही है? या यह केवल रणनीतिक ‘रीपोज़िशनिंग’ है, जिसमें सरकार अपने कदमों को अधिक राजनीतिक और सामाजिक स्वीकार्यता दिलाने का प्रयास कर रही है?
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साथियों बात अगर हम 4 नवंबर 2025, क़ो दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स हीरक जयंती व्याख्यान में वित्तमंत्री का आर्थिक दृष्टिकोण को समझने की करें तो, दिल्ली विश्वविद्यालय के दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में आयोजित हीरक जयंती समापन व्याख्यान (4 नवंबर 2025) में वित्तमंत्री ने जिस स्पष्टता से निजी बैंकों के प्रदर्शन की सराहना की,वह संदेश सीधा था,सरकार निजी क्षेत्र की कार्यक्षमता को स्वीकार कर रही है। उन्होंने कहा कि निजी बैंक “बेहतर ढंग से कार्य कर रहे हैं” और उनकी गवर्नेंस, कर्ज प्रबंधनऔर टेक्नोलॉजिकल इन्फ्रास्ट्रक्चर सरकारी बैंकों की तुलना में कहीं अधिक प्रभावी है।इस वक्तव्य को विशेषज्ञों ने एक “सॉफ्ट सिग्नल” के रूप में देखा है,यह संकेत कि सरकार सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को भी उसी दक्षता और प्रतिस्पर्धात्मक भावना में लाना चाहती है, जो निजी क्षेत्र में दिखाई देती है। हालांकि वित्त मंत्री ने यह भी जोड़ा कि “राष्ट्रीयकरण का मकसद अभी पूरा नहीं हुआ”, जो यह बताता है कि सरकार सामाजिक दायित्वों को नज़र अंदाज़ नहीं कर रही।फिर भी, यह स्पष्ट था कि सरकार अब बैंकिंग क्षेत्र में संरचनात्मक सुधारों के अंतिम चरण में प्रवेश करने जा रही है और इनमें निजीकरण एक महत्वपूर्ण घटक हो सकता है।
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साथियों बात अगर हम एसबीआई बैंकिंग एंड इकॉनमिक्स सम्मेलनमें वित्त मंत्री क़े दूसरे संकेत को समझने की करें तो,12 वें ‘एसबीआई बैंकिंग एंड इकॉनमिक्स सम्मेलन 2025’ में वित्त मंत्री ने वित्तीय संस्थानों से उद्योग जगत के लिए कर्ज प्रवाह को बढ़ाने और व्यापक बनाने का आग्रह किया। उन्होंने कहा कि “विकास के अगले दशक में बैंकों को उद्योगों, स्टार्टअप्स और इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स को अधिक ऋण देना होगा, ताकि भारत वैश्विक निवेश केंद्र बन सके।”यह बयान सिर्फ आर्थिक प्रोत्साहन का आग्रह नहीं था, बल्कि यह एक नीतिगत संकेत भी था,सरकार बैंकिंग प्रणाली को प्रतिस्पर्धी और नवाचार आधारित बनाना चाहती है। निजी क्षेत्र की बैंकिंग प्रणाली पहले से ही इस दिशा में अग्रणी मानी जाती है,फिनटेक, डिजिटल पेमेंट्स,माइक्रो-लेंडिंग और ग्राहक अनुभव के क्षेत्र में। ऐसे में वित्तमंत्री के शब्दों में “निजीकरण का समर्थन झलकना”स्वाभाविक था।विश्लेषकों का मानना है कि यह भारत सरकार का “मिश्रित मॉडल” की ओर झुकाव दर्शाता है—जहां सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक सामाजिक जिम्मेदारी निभाते रहें, और निजी बैंक आर्थिक गतिशीलता को आगे बढ़ाएँ।
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साथियों बात अगर हम इस बात को समझने की करें कि क्या वास्तव में निजीकरण प्रक्रिया शुरू हो गई है?यहाँ सवाल का मूल यही है। क्या सरकार ने बैंक निजीकरण की प्रक्रिया शुरू कर दी है या यह केवल संकेतों की राजनीति है?वास्तविक स्थिति यह है कि 2021 में वित्त मंत्री ने बजट भाषण में दो सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के निजीकरण की घोषणा की थी, जिसे “वित्तीय क्षेत्र सुधार” का हिस्सा बताया गया था। हालांकि तब से अब तक इस दिशा में कोई औपचारिक अधिसूचना या बिक्री प्रक्रिया शुरू नहीं हुई है। नीति आयोग ने जिन दो बैंकों का चयन किया था उनके नाम सार्वजनिक नहीं किए गए, पर चर्चा में बैंक ऑफ महाराष्ट्र, इंडियन ओवरसीज बैंक और सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया के नाम रहे।2023- 24 में सरकार ने इन बैंकों के प्रदर्शन को सुधारने पर अधिक ध्यान दिया,नॉन परफॉर्मेंगएसेट्स कम करने और पूंजी निवेश बढ़ाने की कोशिश की। विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार पहले बैंकों की बैलेंस शीट मजबूत करना चाहती है ताकिनिजीकरण से पहले उन्हें बाजार में बेहतर मूल्यांकन मिल सके।वित्त मंत्री के हालिया बयान कि “राष्ट्रीयकरण का उद्देश्य अभी अधूरा है”को इसी संदर्भ में देखा जा सकता है। इसका अर्थ यह नहीं कि सरकार पीछे हटी है, बल्कि यह कि सरकार निजीकरण को धीरे और रणनीतिक तरीके से लागू करना चाहती है, ताकि न तोराजनीतिक विरोध बढ़े और न ही वित्तीय अस्थिरता उत्पन्न हो।अर्थात, निजीकरण की प्रक्रिया औपचारिक रूप से शुरू नहीं हुई है, पर उसकी तैयारी और माहौल निर्माण स्पष्ट रूप से जारी है।
साथियों बात अगर हम बैंक यूनियनों की प्रतिक्रिया:तरफदारी वाले बयान से असहजता को समझने की करें तो वित्तमंत्री के इन बयानों ने जहां उद्योग जगत और निजी क्षेत्र में उत्साह बढ़ाया, वहीं बैंक कर्मचारियों और यूनियनों में चिंता की लहर दौड़ गई। ऑल इंडिया बैंक इम्प्लॉइज एसोसिएशन, यूनाइटेड फोरम ऑफ बैंक यूनियंस जैसी संस्थाओं ने बयान कोनिजीकरण समर्थक झुकाव बताया।उनका तर्क है कि निजी बैंकों में लाभ प्राथमिक उद्देश्य होता है,जबकि सरकारी बैंकों की भूमिका समाजिक जिम्मेदारी निभाना है, गांवों में शाखाएँ खोलना, गरीबों को सस्ती दर पर ऋण देना, और सरकारी योजनाओं का क्रियान्वयन सुनिश्चित करना। यूनियनों का कहना है कि अगर सरकार निजीकरण की ओर बढ़ती है तो ये सामाजिक लक्ष्य पीछे छूट सकते हैं।इसके अलावा कर्मचारी वर्ग को नौकरी की सुरक्षा, पेंशन, और ट्रांसफर नीतियों को लेकर भी आशंकाएँ हैं। यूनियनों ने 2024 में इस विषय पर देशव्यापी हड़ताल की चेतावनी दी थी, जिसके बाद सरकार ने निजीकरण पर बयानबाजी को सीमित रखा था।
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साथियों बात अगर हम अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण: क्या निजीकरण हमेशा लाभदायक रहा है? को समझने की करें तो,वित्तीय सुधारों का वैश्विक अनुभव बताता है कि बैंकिंग क्षेत्र में निजीकरण का प्रभाव मिश्रित रहा है।ब्रिटेन में 1980 के दशक में बैंकिंग निजीकरण से कार्यकुशलता तो बढ़ी, परंतु ग्रामीण और निम्न-आय वर्ग तक बैंकिंग सेवाओं की पहुँच सीमित हो गई।रूस और लैटिन अमेरिकी देशों में निजीकरण के बाद वित्तीय संकट और सामाजिक असमानता बढ़ी।वहीं सिंगापुर और दक्षिण कोरिया ने“हाइब्रिड मॉडल” अपनाया,जिसमें सार्वजनिक और निजी बैंक दोनों को समान नीति- आधारित स्वायत्तता दी गई और ये देश वित्तीय स्थिरता के उदाहरण बने।भारत इस समय इन अनुभवों के बीच संतुलन खोज रहा है। पूरी तरह निजीकरण करने से पहले उसे यह सुनिश्चित करना होगा कि वित्तीय समावेशन, रोजगार सुरक्षा और सामाजिक न्याय पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े।
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अतः अगर हम उपरोक्त पूरे विवरण का अध्ययन कर इसका विश्लेषण करें तो हम पाएंगे कि वित्त मंत्री के हालिया बयानों को अगर शब्दशः देखा जाए तो यह कहना गलत नहीं होगा कि सरकार ने निजीकरण से पीछे हटने की घोषणा नहीं की, बल्कि नीति को नए ढंग से प्रस्तुत करने की रणनीति अपनाई है।बैंकिंग क्षेत्र में सुधार अब केवल स्वामित्व परिवर्तन का विषय नहीं रहा, बल्कि यह प्रदर्शन, पारदर्शिता प्रौद्योगिकी और उत्तरदायित्व का समग्र कार्यक्रम बन चुका है। सरकार चाहती है कि जब निजीकरण की औपचारिक घोषणा हो, तब तक बैंकों की वित्तीय स्थिति इतनी मजबूत हो कि कोई भी बिक्री “बचाव का उपाय” नहीं बल्कि “नीतिगत सुधार” प्रतीत हो।इसलिए यह कहना उचित होगा कि“बैंक निजीकरण की प्रक्रिया अभी औपचारिक रूप से शुरू नहीं हुई है, लेकिन उसके संकेत, दिशा और नीतिगत तैयारी स्पष्ट रूप से प्रगति पर हैं।”
-संकलनकर्ता लेखक – कर विशेषज्ञ स्तंभकार साहित्यकार अंतरराष्ट्रीय लेखक चिंतक कवि संगीत माध्यमा सीए(एटीसी) एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानी गोंदिया महाराष्ट्र 9226229318
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