कैलाश सिंह
महराजगंज(राष्ट्र की परम्परा)।सदियों पुरानी कुरीतियां आज भी हमारे समाज की रगों में ऐसे धंसी हुई हैं कि आधुनिक समय की सारी चमक‐दमक भी उन्हें पूरी तरह मिटा नहीं पाई है। विज्ञान के युग में कदम रख चुके हम अब भी अंधविश्वास, भेदभाव, दहेज, बालविवाह और छुआछूत जैसी बुराइयों से मुक्त नहीं हो पाए हैं। सवाल यह नहीं कि समाज कितना आगे बढ़ा, बल्कि यह सोच कब बदलेगी?
कुरीतियां किसी एक वर्ग की समस्या नहीं हैं, ये पूरे समाज की जड़ें खोखली करती हैं। दहेज की आग में झुलसती बेटियां, अंधविश्वास के नाम पर होने वाली झाड़‐फूँक, भेदभाव से टूटते रिश्ते—ये सब मिलकर हमें याद दिलाते हैं कि बदलाव केवल विकास की बातों से नहीं आएगा, सोच के स्तर पर क्रांति करनी होगी।
सबसे बड़ी चुनौती यह है कि कुरीतियों को आज भी परंपरा का नाम देकर बचाया जाता है। समाज का एक हिस्सा इन्हें संस्कृति की रक्षा का माध्यम मान लेता है,जबकि वास्तविकता यह है कि संस्कृति मानवता और समानता पर टिकी होती है, न कि अंधभक्ति और भेदभाव पर। कुरीतियां न केवल प्रगति रोकती हैं, बल्कि नई पीढ़ी का आत्मविश्वास भी तोड़ती हैं।
बदलाव की शुरुआत शिक्षा से होती है—सोच को रोशन करने वाली शिक्षा से परिवारों में संवाद, स्कूलों में जागरूकता और समाज में साहसिक पहल, यही इन बुराइयों के खिलाफ सबसे बड़े हथियार हैं। कानून बने, अभियान चलें, लेकिन जब तक समाज स्वयं आगे आकर इन कुरीतियों को अस्वीकार नहीं करेगा, तब तक कोई भी बदलाव स्थायी नहीं हो सकता। समय आ गया है कि हम स्वयं से पूछें—क्या हम आधुनिक समाज हैं या कुरीतियों के कैदी? जागरूकता की लौ तभी जलेगी, जब हर व्यक्ति अपनी भूमिका समझे और कुरीतियों के खिलाफ आवाज बुलंद करे। समाज तभी वास्तव में आगे बढ़ेगा, जब हम बुराइयों की विरासत छोड़कर न्याय, समानता और मानवता की राह चुनेंगे।
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