महराजगंज(राष्ट्र की परम्परा)।गंगा की जलतरंगों से शीतलित, हिमालय की अचल छाया से आच्छादित—शांतिकुंज आज जिस रूप में दुनिया के सामने है, वह किसी संयोग का परिणाम नहीं, बल्कि प्राचीन ऋषि-संस्कृति की पुनर्जागरण यात्रा का जीवंत ध्रुवकेंद्र है। यह केवल एक भौगोलिक स्थान नहीं, बल्कि युगों की तपशक्ति, वैदिक चेतना और आध्यात्मिक प्रयोगों की धरोहर से निर्मित एक ऐसा तीर्थ है जिसने आधुनिक भारत के नैतिक पुनर्जागरण में अनोखा योगदान दिया है।
प्राचीन काल से बहती है इस भूमि में ऋषि-ऊर्जा इतिहास बताता है कि जहां आज शांतिकुंज स्थित है, वहां कभी पावन गंगा अपनी दिव्य जलधारा बहाती थी। इसी पवित्र तट स्थल पर ब्रह्मर्षि विश्वामित्र ने गायत्री महामंत्र की अनेक दिव्य साधनाएं कीं। गायत्री महामंत्र के द्रष्टा द्वारा इस भूमि को चुना जाना दर्शाता है कि यह भूखंड सदियों से विशिष्ट ऊर्जा, आध्यात्मिक चेतना और ऋषि-प्रेरणा का केंद्र रहा है। युगऋषि परमपूज्य गुरुदेव के हिमालय गमन के दौरान वहां के ऋषियों ने—और स्वयं ब्रह्मर्षि विश्वामित्र ने—स्पष्ट संकेत दिया कि इस पवित्र भूमि को पुनः गायत्री तीर्थ के रूप में प्रतिष्ठित किया जाए। यह केवल एक दिव्य आदेश नहीं था, बल्कि भारतीय संस्कृति के नवजागरण का रेखाचित्र था।
तीन सहयोगियों से शुरू हुआ महायज्ञ
वर्ष था 1971 ज्येष्ठ मास का वह ऐतिहासिक क्षण जब वंदनीया माता अखंड दीप और माता गायत्री की सिद्ध शक्ति के साथ इस भूमि पर पहुंचीं। उनके साथ मात्र तीन सहयोगी थे—पर उनके संकल्प, साहस और विश्वास के आगे संख्या का कोई महत्व नहीं था।
इन चार लोगों ने मिलकर वह बीज रोपा जिसने आगे चलकर करोड़ों लोगों के जीवन को प्रकाश, विवेक और नैतिकता की नई ज्योति से भर दिया। गुरुदेव की हिमालय से वापसी—शांतिकुंज के उज्ज्वल युग का उदय आरंभिक काल में जब माताजी शांतिकुंज के निर्माण में जुटी थीं, उस समय युगऋषि पूज्य गुरुदेव देवात्मा हिमालय की ध्रुव साधना में लीन थे। हिमालय की साधना पूरी कर जब वे लौटे, तब शांतिकुंज की ऊर्जा में एक अद्भुत परिवर्तन स्पष्ट दिखाई देने लगा।गुरुदेव के आगमन के साथ ही यह स्थल एक छोटे-से आश्रम से उठकर विश्व-स्तरीय आध्यात्मिक केंद्र बनने की दिशा में अग्रसर हुआ। उनका दृष्टिकोण स्पष्ट था—भारत को जगाना है, विश्व को दिशा देनी है और मनुष्य को उसके भीतर सोई दिव्यता का बोध कराना है।
इक्कीसवीं सदी की गंगोत्तरी आज शांतिकुंज केवल साधना की भूमि नहीं, बल्कि युग-निर्माण के विराट संकल्प का केंद्र बिंदु है। यहीं से निकली विचारधारा—नैतिक पुनर्जागरण,सामाजिक सुधार,युवा जागरण, नारी-शक्ति सशक्तिकरण, पर्यावरण संरक्षण,और सांस्कृतिक पुनर्स्थापन—जैसी अनेक धाराओं में विश्वभर में प्रवाहित हो रही है। इसीलिए इसे उचित ही कहा जाता है
इक्कीसवीं सदी के उज्ज्वल भविष्य की गंगोत्तरी। संस्कृति का वह दीप जो निरंतर प्रज्वलित है शांतिकुंज हमें याद दिलाता है कि दिव्यता और दिशा देने वाला प्रकाश कहीं बाहर नहीं, मनुष्य के भीतर ही स्थित है—उसे केवल जागरण की आवश्यकता है। यहां की हर ईंट, हर प्रार्थना, हर उपासना और हर संस्कार इसी संदेश को धारण करता है कि मनुष्य जब अपने भीतर के प्रकाश से परिचित होता है, तभी समाज में वास्तविक परिवर्तन संभव होता है।
इसलिए शांतिकुंज का महत्व केवल आध्यात्मिकता तक सीमित नहीं बल्कि सामाजिक चेतना, राष्ट्रीय चरित्र निर्माण और वैश्विक सद्भाव की स्थापना तक व्यापक है।
समापन : यह केवल आश्रम नहीं—एक सतत यात्रा है।शांतिकुंज की यह यात्रा आज भी जारी है। यह यात्रा है—मानवता को ऊंचा उठाने की,समाज को संस्कारित करने की,
और विश्व को नए नैतिक मानदंड देने की।
गंगा-तट की यह भूमि आज भी उसी ऊर्जस्विता के साथ खड़ी है, जहां कभी ब्रह्मर्षि विश्वामित्र ने अपने तप की ज्वाला प्रज्वलित की थी और जहां युग ऋषि एवं माताजी ने उसे आधुनिक युग की दिशा बनाकर संपूर्ण मानवजाति को नयी रोशनी दी। शांतिकुंज इस सत्य का प्रमाण है कि जहां दिव्य संकल्प जागता है, वहां इतिहास बदलता है।
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