सनातन परंपरा में संस्कारों का वैज्ञानिक और नैतिक महत्व

जनेऊ पहनने का महत्व: शास्त्रों, संस्कृति और परंपरा में यज्ञोपवीत संस्कार की वैज्ञानिक व आध्यात्मिक व्याख्या

धीरेंद्र तिवारी द्वारा राष्ट्र की परम्परा के लिए प्रस्तुति


हिन्दू सनातन परंपरा में जनेऊ, जिसे “यज्ञोपवीत” भी कहा जाता है, केवल एक सूत का धागा नहीं बल्कि जीवन के अनुशासन, कर्तव्यबोध और आत्मिक उत्कर्ष का प्रतीक माना गया है। यह संस्कार हिन्दू धर्म के प्रमुख 16 या 24 संस्कारों में से एक है, जिसे उपनयन संस्कार कहा जाता है। उपनयन का अर्थ है – गुरु के समीप ले जाना और ज्ञानमार्ग पर अग्रसर करना।

प्राचीन भारत में जब बालक की शिक्षा की औपचारिक शुरुआत होती थी, उसी समय उसे यज्ञोपवीत धारण कराया जाता था। यह संकेत होता था कि अब वह ब्रह्मचर्य आश्रम में प्रवेश कर चुका है और उसके लिए यम-नियम, गुरुसेवा, सत्य, ब्रह्मचर्य, संयम और अध्ययन अनिवार्य हो जाते हैं।

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आज भले ही समय और परिस्थितियाँ बदल चुकी हों, लेकिन जनेऊ पहनने का महत्व आज भी भारतीय संस्कृति में एक गहरी पहचान रखता है।

जनेऊ क्या है और इसे कैसे धारण किया जाता है?

जनेऊ एक पवित्र धागा होता है जो सूत से बनाया जाता है। इसे बाएं कंधे से दाईं भुजा के नीचे इस प्रकार पहना जाता है कि यह हृदय के पास से गुजरता है। इसे पहनने की विधि और उसका रख-रखाव भी एक नियमबद्ध प्रक्रिया के अंतर्गत किया जाता है।

शास्त्रों के अनुसार जनेऊ की सामान्य लंबाई 96 अंगुल मानी गई है, जिसका प्रतीकात्मक अर्थ यह है कि व्यक्ति को जीवन में 64 कलाओं और 32 विद्याओं को सीखने का प्रयास करना चाहिए।

यज्ञोपवीत में मुख्य रूप से:
तीन प्रमुख सूत्र (धागे) होते हैं
हर सूत्र के अंदर तीन उप-सूत्र होते हैं
इस प्रकार कुल नौ धागे माने जाते हैं
ये तीन सूत्र कई अर्थों के प्रतीक हैं —

  • त्रिदेव (ब्रह्मा, विष्णु, महेश)
  • तीन ऋण (देवऋण, पितृऋण, ऋषिऋण)
  • तीन गुण (सत्व, रज, तम)
  • गायत्री मंत्र के तीन चरण
    यज्ञोपवीत में पांच गांठ (ग्रंथियां) होती हैं जो धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष और ब्रह्म का प्रतीक मानी जाती हैं।
    जनेऊ पहनने का धार्मिक महत्व
    धार्मिक दृष्टि से जनेऊ व्यक्ति को संयमित और पवित्र जीवन जीने की प्रेरणा देता है। यज्ञोपवीत धारण करने के बाद बालक को गायत्री मंत्र का अधिकार प्राप्त होता है और उसे वेद-पाठ, साधना और तपस्या के योग्य माना जाता है।
    शास्त्रों में यह भी उल्लेख मिलता है कि —
    दाएं कान को अत्यंत पवित्र माना गया है
    वहां देवताओं का वास माना जाता है
    इसी कारण मल-मूत्र त्याग से पहले जनेऊ को कान पर लपेटने का नियम है।
    यह प्रक्रिया बाहरी और आंतरिक शुद्धता का प्रतीक है। इसे आज के संदर्भ में “हाइजीन की धार्मिक व्याख्या” भी कहा जा सकता है।
    क्या महिलाएं जनेऊ धारण कर सकती हैं?
    शास्त्रों में ऐसी स्त्रियों के लिए भी जनेऊ का विधान बताया गया है, जो आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करती हैं और आध्यात्मिक मार्ग अपनाती हैं। वेदकाल में कई शिक्षित महिलाएं विद्या और साधना के क्षेत्र में अग्रणी थीं और उन्हें यज्ञोपवीत का अधिकार था।
    हालांकि वर्तमान समय में यह परंपरा दुर्लभ है, लेकिन शास्त्रों में इसका स्पष्ट उल्लेख मौजूद है।
    जनेऊ से जुड़ी परंपराएं और प्रतीकात्मक लाभ
    ‘जनेऊ पहनने का महत्व’ केवल धार्मिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और नैतिक भी है। इसके माध्यम से व्यक्ति को यह स्मरण रहता है कि—
    उसे संयमित जीवन जीना है।
    सात्त्विक आचरण अपनाना है।
    बुरे कर्मों से दूर रहना है।
    गुरु, माता-पिता और समाज का सम्मान करना है
    कंधे पर पड़ा यह धागा व्यक्ति को हर समय उसके कर्तव्यों का स्मरण करवाता है।
    हालांकि कई लोग इसके साथ शारीरिक व स्वास्थ्य लाभ भी जोड़ते हैं, लेकिन यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि ये अधिकतर परंपरागत मान्यताओं पर आधारित हैं, न कि प्रमाणित चिकित्सकीय शोधों पर।
    इसलिए इन्हें सांस्कृतिक और आस्था आधारित विचार के रूप में ही देखा जाना चाहिए।
    जनेऊ संस्कार कब किया जाता है?
    पारंपरिक मान्यताओं के अनुसार:
    बालक के 8वें वर्ष में उपनयन संस्कार कराया जाता है।
    लेकिन वर्तमान समय में अधिकतर लोग इसे विवाह से पहले कराते हैं।
    संस्कार के लिए विशेष तिथि, नक्षत्र और मुहूर्त देखे जाते हैं।
    उपनयन के दौरान बालक का मुंडन कराया जाता है, स्नान करवाया जाता है, पीत वस्त्र पहनाए जाते हैं और गायत्री मंत्र का उपदेश दिया जाता है।
    इस मंत्र के माध्यम से वैचारिक और आत्मिक शुद्धता का संकल्प दिलाया जाता है।
    आज के समय में जनेऊ की प्रासंगिकता
    आधुनिक दौर में जहां जीवनशैली बदल रही है, वहीं कई लोग इस परंपरा से दूरी बना रहे हैं। लेकिन फिर भी यह कहना गलत नहीं होगा कि जनेऊ पहनने का महत्व आज भी एक नैतिक अनुशासन, संस्कृति और पहचान का सूचक है।
    यह धर्म के साथ-साथ भारतीय सभ्यता की हजारों वर्षों पुरानी परंपरा का प्रतीक है। इसका मूल उद्देश्य व्यक्ति को जिम्मेदार, कर्तव्यनिष्ठ और मर्यादित बनाना है।

जनेऊ केवल एक रस्म नहीं, बल्कि संस्कार है। यह व्यक्ति के जीवन में अनुशासन, शुद्धता और आत्मिक उन्नति की भावना जागृत करता है।

आज आवश्यकता है कि हम इन परंपराओं को अंधविश्वास के रूप में नहीं, बल्कि उनके सांस्कृतिक और नैतिक मूल्यों के रूप में समझें और आगे बढ़ाएं।
जनेऊ पहनने का महत्व केवल शरीर को नहीं, बल्कि मन और जीवन को भी दिशा देने का कार्य करता है।

Editor CP pandey

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