भारत के ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य सेवाओं की दुर्दशा आज भी विकास की सच्चाई को कठोर रूप में सामने रखती है। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में डॉक्टरों की भारी कमी, आवश्यक दवाओं का अभाव, एम्बुलेंस सेवा की अनियमितता और जागरूकता की कमी—ये सभी समस्याएँ मिलकर ग्रामीण भारत की सेहत को लगातार खतरे में डाल रही हैं। देश की बड़ी आबादी गाँवों में रहती है, लेकिन वही आबादी सबसे ज़्यादा उपेक्षित भी दिखती है। ऐसे में सवाल उठता है—जब आम नागरिकों को बुनियादी इलाज भी उपलब्ध नहीं, तो विकास के दावों पर भरोसा कैसे किया जाए?
ग्रामीण स्वास्थ्य ढाँचा वास्तविक रूप से चरमराया हुआ है। कई उप-स्वास्थ्य केंद्र महीनों बंद रहते हैं, और जहाँ खुले हैं वहाँ स्टाफ की उपस्थिति संदिग्ध रहती है। मातृ-स्वास्थ्य, टीकाकरण अभियान और आपातकालीन इलाज जैसी बुनियादी सेवाएँ अपेक्षित स्तर तक नहीं पहुँच पातीं। प्रसव के समय महिलाओं को उचित सुविधा न मिलने का जोखिम आज भी गाँवों में मौजूद है, जबकि किशोरियों में कुपोषण और एनीमिया जैसी समस्याएँ लगातार बढ़ रही हैं, जो भविष्य की पीढ़ियों को कमजोर बनाती हैं।
सरकार की ओर से कई योजनाएँ शुरू की गई हैं—जैसे आयुष्मान भारत, टेलीमेडिसिन और डिजिटल हेल्थ मिशन—लेकिन इनका लाभ तभी ग्रामीणों तक पहुँच सकता है जब इंटरनेट, सड़क और संचार जैसी बुनियादी सुविधाएँ मजबूत हों। गाँवों में सूचना का अभाव और सरकारी व्यवस्था में जवाबदेही की कमी इन योजनाओं की गति को रोक देती है। परिणामस्वरूप, कागज़ पर उत्कृष्ट दिखने वाली योजनाएँ ज़मीन पर फीकी पड़ जाती हैं।
निजी अस्पताल ग्रामीण परिवारों के लिए किसी दूर के सपने की तरह हैं। महंगे इलाज के कारण कई परिजनों को कर्ज लेना पड़ता है, जबकि बड़ी संख्या ऐसे परिवारों की है जो वित्तीय बोझ से बचने के लिए इलाज ही नहीं कराते। मामूली बीमारी भी बड़े संकट में बदल जाती है और कई बार जानलेवा साबित होती है।
ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं की यह स्थिति केवल स्वास्थ्य से जुड़ी चुनौती नहीं, बल्कि एक सामाजिक, आर्थिक और मानवाधिकार संबंधी मुद्दा भी है। जब गाँव स्वस्थ होंगे, तभी देश के विकास की नींव मजबूत होगी। इसलिए यह समय है कि सरकार, स्वास्थ्य विभाग, स्थानीय प्रशासन और समाज सभी मिलकर यह समझें कि ग्रामीण भारत की सेहत ही राष्ट्र की वास्तविक प्रगति का पैमाना है।
आख़िरकार बड़ा प्रश्न यही है—गाँवों की स्वास्थ्य व्यवस्था की ज़िम्मेदारी कौन लेगा और कब? जब तक इस प्रश्न का जवाब ईमानदारी से नहीं खोजा जाएगा, तब तक ग्रामीण भारत की आवाज़ें अनसुनी ही रहेंगी।
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