November 22, 2024

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राष्ट्रीय शिक्षा नीति से होगा शैक्षिक गुणवत्ता का कायाकल्प

संपादकीय

राष्ट्रीय शिक्षा नीति देश की शिक्षा व्यवस्था को एक सुव्यवस्थित व्यवहारिक एवँ बृहद आधारशिला प्रदान करती है, यह शिक्षा नीति 21 वीं सदी की पहली ऐसी शिक्षा नीति हैं जो राष्ट्र को लगभग 34 वर्षो बाद मिली है l
नई शिक्षा नीति 2020 देश की राष्ट्रीय शिक्षा नीति है जिसे भारत सरकार द्वारा 29 जुलाई 2020 को घोषित किया गया। सन 1986 में जारी हुई नई शिक्षा नीति के बाद भारत की शिक्षा नीति में यह पहला नया परिवर्तन है, जो अंतरिक्ष वैज्ञानिक के. कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता वाली समिति की रिपोर्ट पर आधारित है। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 के तहत वर्ष 2030 तक “सकल नामांकन अनुपात” को 100% लाने का लक्ष्य रखा गया है। इसके अन्तर्गत शिक्षा क्षेत्र पर “सकल घरेलू उत्पाद” के 6% हिस्से को सार्वजनिक व्यय का लक्ष्य रखा गया है। मानव संसाधन प्रबंधन मंत्रालय’ का नाम बदल कर “शिक्षा मंत्रालय” किया गया है, कक्षा पाँचवी तक की शिक्षा में मातृभाषा/ स्थानीय एवँ क्षेत्रीय भाषाओं को शिक्षा के माध्यम के रूप में अपनाने पर विशेष बल दिया गया है। साथ ही मातृभाषा को कक्षा-8 और आगे की कक्षाओं में शिक्षा के लिये प्राथमिकता देने की बात भी गई हैं। देश भर के शैक्षिक संस्थानों के लिये “भारतीय शिक्षा परिषद” नामक एक एकल नियामक की परिकल्पना की गई है। शिक्षा नीति में यह पहला परिवर्तन बहुत पहले लिया गया था लेकिन अबकी बार 2020 में जारी किया गया, यह बहुत सामयिक परिवर्तन है, भारतीय संविधान के नीति निदेशक तत्वों में भी कहा गया है कि 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों के लिये अनिवार्य एवं नि:शुल्क शिक्षा की व्यवस्था की जाए। 1948 में डॉ॰ राधाकृष्णन की अध्यक्षता में विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग का भी गठन हुआ था, तभी से राष्ट्रीय शिक्षा नीति का निर्माण होना भी शुरू हुआ था। कोठारी आयोग (1964-1966) की सिफारिशों पे आधारित 1968 में पहली बार महत्त्वपूर्ण बदलाव वाला प्रस्ताव अगस्त 1985 “शिक्षा की चुनौती” नामक एक दस्तावेज तैयार किया गया, जिसमें भारत के विभिन्न वर्गों (बौद्धिक, सामाजिक, राजनैतिक, व्यावसायिक, प्रशासकीय आदि) ने अपनी शिक्षा सम्बन्धी टिप्पणियाँ दीं जिसके आधार पर 1986 में भारत सरकार ने “नई शिक्षा नीति 1986” का प्रारूप तैयार किया। इस नीति की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह रहीं कि इसमें सम्पूर्ण देश के लिए एक समान शैक्षिक ढाँचे को स्वीकार किया और अधिकांश राज्यों ने 10 + 2 + 3 की संरचना को विधिवत अपनाया। इस नीति में 1992 में संशोधन भी किया गया था। 2019 में मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने नई शिक्षा नीति के लिये जनता से सलाह मांगना शुरू किया था।
इस नई नीति में मानव संसाधन मंत्रालय का नाम पुनः “शिक्षा मंत्रालय” करने का फैसला लिया गया है। इसमें समस्त उच्च शिक्षा (कानूनी एवं चिकित्सीय शिक्षा को छोड़कर) के लिए एक एकल निकाय के रूप में भारत उच्च शिक्षा आयोग का गठन करने का प्रावधान है। संगीत, खेल, योग आदि को सहायक पाठ्यक्रम या अतिरिक्त पाठ्यक्रम की बजाय मुख्य पाठ्यक्रम में ही जोड़ा जाएगा। शिक्षा नीति में मूल्य परक व शिक्षकों के प्रशिक्षण पर विशेष बल दिया गया है। व्यापक सुधार के लिए शिक्षक-प्रशिक्षण और सभी शिक्षा कार्यक्रमों को विद्यालय व विश्वविद्यालयों या कॉलेजों के स्तर पर शामिल करने की सिफारिश भी की गई है। प्राइवेट स्कूलों में मनमाने ढंग से शुल्क वृद्धि को भी रोकने की बात भी पुरजोर रूप में कही गई है। पहले ‘समूह’ के अनुसार विषय चुने जाते थे, किन्तु अब उसमें भी काफी बदलाव किया गया है। जो छात्र इंजीनियरिंग कर रहे हैं वह संगीत को भी अपने विषय के साथ पढ़ सकते हैं। नेशनल साइंस फाउंडेशन के तर्ज पर नेशनल रिसर्च फाउंडेशन लाई जाएगी जिससे पाठ्यक्रम में विज्ञान के साथ सामाजिक विज्ञान को भी शामिल किया जाएगा। नीति में पहले और दूसरे कक्षा में गणित और भाषा एवं चौथे और पांचवें कक्षा के बालकों के लेखन पर जोर देने की बात कही गई है।
स्कूलों में 10 +2 फार्मेट के स्थान पर 5 +3+3+4 फार्मेट को शामिल किया जाएगा। इसके तहत पहले पांच साल में प्री-प्राइमरी स्कूल के तीन साल और कक्षा एक और कक्षा दो सहित फाउंडेशन स्टेज शामिल होंगे। पहले जहां सरकारी स्कूल कक्षा एक से शुरू होती थी वहीं अब तीन साल के प्री-प्राइमरी के बाद कक्षा एक शुरू होगी। इसके बाद कक्षा 3-5 के तीन साल शामिल हैं। इसके बाद 3 साल का मिडिल स्टेज आएगा यानी कक्षा 6 से 8 तक की कक्षा, चौथा स्टेज (कक्षा 9 से 12वीं तक का) 4 साल का होगा । पहले जहां 11वीं कक्षा से विषय चुनने की आज़ादी थी, वहीं अब 9 वीं कक्षा से रहेगी।
शिक्षण के माध्यम के रूप में पहली से पांचवीं तक मातृभाषा का इस्तेमाल किया जायेगा। इसमें रट्टामार प्रणाली को ख़त्म करने की भी कोशिश की गई है, जिसको मौजूदा व्यवस्था की बड़ी खामी माना जाता रहा है। किसी कारणवश अगर शिक्षार्थी उच्च शिक्षा के बीच में ही कोर्स छोड़ के चले जाते हैं, तो ऐसा करने पर उन्हें कुछ नहीं मिलता था एवं उन्हें डिग्री के लिये दोबारा से नई शुरुआत करनी पड़ती थी। अब नई नीति में पहले वर्ष में कोर्स को छोड़ने पर प्रमाण पत्र, दूसरे वर्ष पे छोड़ने पे डिप्लोमा एवं अंतिम वर्ष पे छोड़ने पे डिग्री देने का प्रावधान है।
शिक्षक शिक्षा का भारतीयकरण:- बात तो बहुत सपाट व सुस्पस्ट हैं परन्तु इसे अनावश्यक रूप से ना जाने क्यों कठिन बना दिया गया हैं।
शिक्षा व्यवस्था कैसी हो? अब जब हमने ये तय ही कर लिया हैं कि हमारी शिक्षा भारतीय हो, तो ये होकर ही रहेगा।
अब प्रश्न ये उठता हैं कि कौन सी व्यवस्था या प्रणाली या पाठ्यक्रम भारतीय है? इसका प्रत्यक्ष उत्तर हैं कि जो व्यवस्था, प्रणाली या पाठ्यक्रम भारतीय सिद्धान्तों पर आधारित हो वह भारतीय हैं। भारतवर्ष अनेक राष्ट्रो का समूह रहा हैं। प्रत्येक राज्य की अपनी सीमाये थी।
राजा महाराजा शासन करते,
अंग्रेजो ने हमारी मूल्य आधारित शिक्षा पर प्रहार कर हमारी सामजिक बुनियाद को हिला दिया था। हमारी ज्ञानसत्ता जो की धर्मसत्ता के आधीन थी, उसे अर्थसत्ता के आधीन कर दिया। सत्ता का क्रम उल्टा हो गया। धर्म से ज्ञान, ज्ञान से राज्य और राज्य से अर्थ सत्ता संचालन का चक्र टूट गया। अब अर्थसत्ता प्रमुख सत्ता बन गयी। अर्थसत्ता के अनुसार राज्य सत्ता और राज्य सत्ता के अनुरूप ज्ञान सत्ता कार्य करने लगी। धर्मसत्ता को दरकिनार कर दिया गया।
आज हमें यदि शिक्षा का भारतीयकरण करना हैं तो धर्मसत्ता को पुनः प्रतिष्टिथ करना होगा। हम जितना अधिक धर्मसत्ता की स्थापना करेंगे उतना अधिक शिक्षा का भारतीयकरण होगा साथ ही हमारी शिक्षा व्यवस्था मूल्य परक आनुपातिक होगा।
शिक्षा व्यवस्था किसका दायित्व?
धर्मसत्ता को स्थापित कोन करे? यह किसका दायित्व हैं? इसका सीधा-सादा उत्तर हैं कि यह गुरुत्तर दायित्व शिक्षक का हैं। शिक्षक से भी अधिक आचार्य का हैं। आचार्य से भी अधिक गुरु का हैं। हमें यह भी तय करना होगा कि हमारे राष्ट्र में शिक्षक का रूपांतरण गुरु पद में हो जाए, शीघ्रतिशीघ्र हो जाय, गुरु सर्वोत्तम पद हैं और हमारी भारतीय व्यवस्था में उच्च पद के साथ दायित्व जुड़ता हैं। ये हमारा दायित्व हैं कि हम एक शिक्षक के रूप में हमारी क्रमोन्नति गुरु रूप में कर धर्मसत्ता की स्थापना करे। आइये, हम धर्मसत्ता की स्थापना कर सम्पूर्ण व्यवस्था का भारतीयकरण करे, विशेष रूप से मूल्य परक शिक्षा का, वो भी आज और अभी। क्योकि कल आने तक तो बहुत ही विलम्ब हो जाएगा l
मूल्य आधारित शिक्षा में सूचना एवं सम्प्रेषण तकनीकी:- शिक्षा में सूचना एवं संचार तकनीकी आधुनिक युग तकनीकी के विकास एवं क्रान्ति का युग है। दिन – प्रतिदिन नई-नई तकनीकियों तथा माध्यमों का विकास तेजी से हो रहा है। माध्यमों के विकास ने विश्व की भौतिक दूरी को कमतर कर दिया है अथवा विश्व को बहुत छोटा कर दिया है। इसमें वृहद् तकनीकी प्रवृत्तियों का विशेष योगदान है। लघु तकनीकी प्रवृत्तियों का उपयोग कक्षा-शिक्षण में प्रक्षेपित तथा अप्रेक्षित माध्यमों के रूप में भी किया जाता है। कक्षा-शिक्षण में शिक्षण तकनीकी, अनुदेशन तकनीकी, सूचना तकनीकी, संचार तकनीकी, व्यवहार तकनीकी आदि का उपयोग किया जाता है। शिक्षा में सूचना एवं संचार तकनीकी ने मानवीय ज्ञान में वृद्धि की है l
जिसके प्रमुख पक्ष- ज्ञान को संचित करना, ज्ञान का विकास करना, प्रथम पक्ष ज्ञान को संचित करना है। छापने की मशीनों से पूर्व अधिकांश ज्ञान कंठस्थ ही किया जाता था, और यह ज्ञान गुरु शिष्यों को प्रदान करते थे, परन्तु सूचना एवं संचार तकनीकी के प्रयोग से ज्ञान को पुस्तक के रूप में पुस्तकालयों में संचित किया जाने लगा। मानवीय ज्ञान का द्वितीय पक्ष ज्ञान का प्रसार करना है। शिक्षक अपने शिष्यों को संचित किये गये ज्ञान को प्रदान करता है। एक शिक्षक सीमित छात्रों को अपने ज्ञान से लाभान्वित करा सकता है, परन्तु माइक, रेडियो, दूरदर्शन के प्रयोग से वह असंख्य छात्रों को अपना ज्ञान प्रदान कर सकता है। शिक्षा तकनीकी के परिणामस्वरूप शिक्षा प्रक्रिया बदल चुकी है। अब तक छात्रा विद्यालयों में तथा अध्यापकों के यहाँ जाया करते थे परन्तु अब अध्यापक छात्रों के यहाँ पहुँच रहा है।
आज शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया को प्रभावशाली बनाने के लिए अनेक सूचना एवं संचार माध्यमों को प्रयोग किया जाता है; जैस रेडियो, दूरदर्शन, कम्प्यूटर, इंटरनेट, वेबसाइट, टेलीकाॅन्फ्रेंसिंग, वीडियोकाॅन्फ्रेंसिंग आदि।
शिक्षा के सार्वभौमिकरण के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए समय-समय पर शिक्षाशास्त्रिायों के द्वारा अभिनव प्रयास किये गये हैं। शिक्षा के जन सामान्य में प्रसार के लिए विज्ञान व तकनीकी ने नये आयामों को जन्म दिया है। रेडियो व दूरदर्शन जैसे उपकरणों के शैक्षिक प्रयोगों ने शैक्षिक प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। आधुनिक कम्प्यूटर आधारित तकनीकी ने न केवल शैक्षिक प्रसार के स्वरूप को परिमार्जित किया है, बल्कि तकनीकी के समावेशन की प्रक्रिया को जन्म देकर शिक्षा के क्षेत्रा को एक प्रमाणिक व सर्वसुलभ आयाम प्रदान किया है। तकनीकी के विकास से शिक्षा के क्षेत्र में हम जिस क्रान्ति की कल्पना करते थे। आज कम्प्यूटर आधारित तकनीकी ने इस कल्पना को साकार करके शैक्षिक क्षेत्र में नये युग का सूत्रापात किया है l
शैक्षिक पाठ्यक्रम और गुणवत्ता सुधार:- देश के शैक्षणिक संस्थानों में गुणवत्ता में सुधार के लिए शिक्षा मन्त्रालय, नवोदय विद्यालय समिति एवं यूजीसी आदि ने भी नई गाइडलाइन तैयार की है। इस लाइन में शिक्षा में गुणवत्ता सुधार के उन सभी पहलुओं को शामिल किया गया है। जो किसी भी संस्थान के लिए बहुत जरूरी होते हैं। नवोदय विद्यालय समिति ने भी अनेक गुणवत्तापूर्ण तकनीकी सुधार कार्यक्रमों के माध्यम से शैक्षिक गुणवत्ता पर विशेष बल दिया है, यूजीसी ने तो गुणवत्ता परक शिक्षा के साथ-साथ 2022 तक देश के सभी कॉलेज और विश्वविद्यालयों को “नैक” (राष्ट्रीय मूल्यांकन एवं प्रत्यायन परिषद) की ग्रेडिंग का लिया जाना अनिवार्य कर दिया है। इसके बाद देशभर के कॉलेज और विश्वविद्यालयों में इस वक्त नैक ग्रेडिंग पाने के लिए जी-तोड़ मेहनत की जा रही है। आंकड़े और डाटा तेजी से जुटाये जा रहे हैं, कॉलेज, विश्वविद्यालयों की व्यवस्थाओं को सुधारने पर काफी जोर दिया जा रहा है। यूजीसी ने नैक की ग्रेडिंग प्रदान करने एवं उच्च शिक्षा में गुणवत्ता सुधार के लिए जो नई पहल शुरु की है।
परिणाम आधारित पाठ्यक्रम रूपरेखा यूजीसी ने शिक्षा के क्षेत्र में शामिल विभिन्न विशेषज्ञों के साथ परामर्श करने के बाद शिक्षा परिणाम आधारित पाठ्यक्रम रूपरेखा पर एक दस्तावेज तैयार किया है। शिक्षा परिणाम आधारित दृष्टिकोण का मूल आधार शिक्षा परिणाम कार्यक्रम और शैक्षणिक मानकों सहित स्नातक द्वारा प्राप्त की जाने वाली विशेषताओं को श्रेणीवद्ध करना है। यह एक छात्र केंद्रित सीखने का तरीका हैl छात्रों के लिए जीवन कौशल वैश्विक रोजगार और सफल जीवन जीने के लिए स्नातकों को महत्वपूर्ण कौशल से सशक्त बनाने के लिए एक पाठ्यक्रम तैयार किया गया है l
शैक्षणिक संस्थानों एवँ विश्वविद्यालयों को अपने-अपने परिसरों में पर्यावरणमय गुणवत्ता को बढ़ाने के लिए चिंतनशील नीति और व्यवहार को अपनाने और इसके लिए भविष्य में सतत् हरित तरीकों को अपनाने के लिए प्रेरित करती है,
शैक्षणिक संस्थानों में मानवीय मूल्यों और आचार नीति की संस्कृति को बढ़ावा देने में मदद करने वाली प्रक्रिया पर चर्चा करने और उसे कारगर बनाने की आवश्यकताओं को स्वीकार करते हुए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने एक नीतिगत रूपरेखा ‘मूल्य प्रवाह’-उच्च शैक्षणिक संस्थानों में मानव मूल्यों और व्यावसायिक आचार नीति के लिए दिशा-निर्देश’ भी तैयार किए हैं। शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार के लिए छात्रों के मूल्यांकन की निष्पक्ष और वस्तुपरक प्रणाली बहुत आवश्यक है। छात्रों के आकलन और मूल्यांकन को अधिक सार्थक और प्रभावी बनाने के लिए अध्ययन के परिणामों से जोड़ा जाना जरूरी है। इसी उद्देश्य के साथ विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने भारत में शिक्षा संस्थानों में मूल्यांकन सुधार नाम रिपोर्ट तैयार की है। साथ ही आज इसी तर्ज पर देश के नवोदय विद्यालयों में पर्यावरणमय मूल्य परक शिक्षा के माध्यम से राष्ट्र की आर्थिक सामाजिक एवँ साँस्कृतिक विविधताओं को सहेजे एवं संजोये हुए हैं l राष्ट्रीय शिक्षा नीति में देश शैक्षणिक उन्नयन का मूल आधर निहित है l

जनार्दन उपाध्याय,

सहायक आयुक्त,

नवोदय विद्यालय समिति, लखनऊ संभाग

ये लेखक के विचार है